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प्रत्यक्ष संयोग होनेसे जो स्वाद आता है उसकी शक्तिको एक तरहसे खो बैठा है। अर्थात् हमे सब पदार्थोको पुस्तकके द्वारा जाननेका एक अतिशय अस्वाभाविक अभ्यास पड़ गया हैं। जो पदार्थ हमारे बिलकुल ही पास है उसे भी यदि हम जानना चाहते है तो पुस्तकके मुहँकी ओर ताकते है । एक नबाबसाहबके विषयमें सुनते है कि वे एक वार जूता पहना देनेके लिए नौकरके आनेकी राह देखने लगे
और इतनेमे दुश्मनके हाथों कैद हो गये । पुस्तककी विद्याके फेरमे पड़कर हमारी मानसिक नबाबी भी इसी तरह बहुत जियादा बढ़ गई है। तुच्छसे तुच्छ विषयके लिए भी यदि पुस्तक नहीं होती है तो हमारे मनको कोई आश्रय नहीं मिलता । और बड़े भारी आश्चर्यकी बात तो यह है कि इस विकृत सस्कारके दोषसे हममें जो यह नबाबी आ गई है उसे हम लज्जाकर नहीं किन्तु उलटी गौरवजनक समझते है-पुस्तकोंके द्वारा जानी हुई बातोंसे ही हम आपको पण्डित शिरोमणि मानकर गर्व करते है। इसका अर्थ यह है कि हम जगतको मनसे नहीं किन्तु पुस्तकोंसे टटोलते हैं ! ___ इस बातको हम मानते है कि मनुष्यके ज्ञान और भावोंको सञ्चित कर रखनेके लिए पुस्तक जैसी सुभीतेकी चीज़ और कोई नहीं है। पुस्तकोकी कृपासे ही आज हम मनुष्यजातिके हजारों वर्ष पहलेके ज्ञान और भावोंको हृदयस्थ कर सकते है। किन्तु यदि हम इस सुभीतेके द्वारा अपने मनकी स्वाभाविक शक्तिको बिलकुल ही लॅक डालें तो इसमें कोई सन्देह नहीं है कि हमारी बुद्धि 'बाबू' बन जायगी। इस 'बाबू' नामक जीवसे पाठक अवश्य ही परिचित होगें । जो जीव नौकर चाकर, माल असबाब, चीज़ वस्तुके सुभीतेके अधीन रहता है उसे 'बाबू' कहते है। बाबू लोग यह नहीं समझते कि अपनी शक्ति या