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________________ २१४ वास्तवमें पुस्तकोंमेंसे ज्ञानसञ्चय करना हमारे मनका स्वाभाविक धर्म नहीं है। पदार्थको प्रत्यक्ष देख सुनकर, हिला डुलाकर, परीक्षा करके ही वास्तविक ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है और यही हमारे स्वभावका विधान है। दूसरोंका जाना हुआ या परीक्षा किया हुआ ज्ञान भी यदि हम उनके मुंहसे सुनते हैं (नकि पुस्तकोंमेंसे पढते है) तो हमारा मन उसे सहज ही स्वीकार कर लेता है । क्योंकि मुँहकी बात केवल 'वात' ही नहीं है, वह 'मुंहकी बात' है। उसके साथ प्राण है, मुख और नेत्रोंकी भाव भगी है, कण्ठका तीव्र मन्द स्वर है और हाथोंके इशारे है । इन सबके द्वारा जो भापा कानोंसे सुनी जाती है वह सङ्गीत और आकारमें परिणत होकर नेत्र और कान दोनोंकी ज्ञेय या ग्रहणसामग्री बन जाती है। केवल यही नहीं, यदि हमको मालूम हो जाय कि कोई मनुष्य अपने मनकी सामग्री हमें प्रसन्न और ताजा मनसे दे रहा है-वह सिर्फ एक पुस्तक ही नहीं पढता जा रहा है, तो मनके साथ मनका एक प्रकारसे प्रत्यक्ष मिलन हो जाता है और इससे ज्ञानके वीच रसका सचार होने लगता है। किन्तु दुर्भाग्यवश, हमारे मास्टर पुस्तक पढनके केवल एक उपलक्ष्य है और हम पुस्तक पढनेके केवल एक उपसर्ग । अर्थात हम जो पुस्तकें पढ़ते हैं उनमें मास्टर केवल थोडीसी सहायता देते है और पुस्तक पढ़नेमें हमारा अन्तःकरण केवल उतना ही काम करता है जितना उपसर्ग किसी शब्दके साथ मिलकर। इसका फल यह हुआ है कि जिस तरह हमारा शरीर कृत्रिम पदार्थोकी ओटमे पड़कर पृथ्वीके साक्षात् संयोगसे वचित हो बैठा है, और वचित होकर इतना अभ्यस्त हो गया है कि उस संयोगको हम आज क्लेशकर और टजाकर समझने लगे है, उसी तरह हमारा मन, जगतके साथ
SR No.010718
Book TitleJain Hiteshi
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages373
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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