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१०८ कहीं कोसों उजाडो झाडपड़े,
कहीं आडमे कोई पहाड़ सटा । कहीं कुज, लताके वितान तने, घने फूलोंका सौरभ था सिमटा ।।
(४) झरने झरनेकी कहीं झनकार,
फुहारेका हार बिचित्र ही था। हरियाली निराली न माली लगा,
तब भी सब ढग पवित्र ही था। ऋषियोंका तपोवन था, सुरभीका,
जहाँ पर सिंह भी मित्र ही था। बस जान लो, सात्विक सुन्दरता
सुख-सयुत शान्तिका चित्र ही था ।
कहीं झील किनारे बड़े बड़े प्राम,
गृहस्थ-निवास बने हुए थे। खपरैलोंमें कद्दू करैलोंकी बेलके
खूब तनाव तने हुए थे । जल शीतल, अन्न, जहा पर पाकर
पक्षी घरोंमें घने हुए थे। सब ओर स्वदेश-समाज-स्वजाति
भलाईके ठान ठने हुए थे।
इस भाति निहारते लोककी लीला
प्रसन्न वे पक्षी फिरें घरको। उन्हें देखके दूरहीसे मुंह खोलते