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उत्पन्न होगी-किन्तु यह याद रखना चाहिए कि जो ससारके समस्त प्रवृत्ति-संघातोंके बीच रहकर यथेच्छ मनुष्य बन जाते हैं, उन्हें गृहस्थ होनेके योग्य मनुष्यत्व प्राप्त नहीं हो सकता-जमींदार बनाया जा सकता है, व्यवसायी बनाया जा सकता है परन्तु मनुष्य बनना बहुत ही कठिन है। हमारे देशमें एक समय गृहधर्मका आदर्श बहुत ही ऊँचा था, इसीलिए समाजमें तीनों वर्गोंको ससारमें प्रवेश करनेके पहले ब्रह्मचर्यपालनके द्वारा आपको तैयार करनेका उपदेश और व्यवस्था थी । यह आदर्श बहुत समयसे नीचे गिर गया है और उसके स्थानपर हमने अब तक और कोई महत् आदर्श ग्रहण नहीं किया, इसीसे हम आज कर्क, सरिश्तेदार, दारोगा, डिपुटी मजिस्ट्रेट बनकर ही सन्तुष्ट है-इससे अधिक बननेको यद्यपि हम बुरा नहीं समझते तथापि बहुत समझते है ।
किन्तु इससे बहुत अधिक भी बहुत नहीं है। हम यह बात केवल हिन्दुओकी ओरसे नहीं कहते हैं-नहीं, किसी देश और किसी देश समाजमें भी यह बहुत नहीं है। दूसरे देशोंमें ठीक इसी प्रकारकी शिक्षाप्रणाली प्रचलित नहीं की गई और वहाके लोग युद्धोंमें लड़ते है, वाणिज्य करते हैं, टेलीग्राफके तार खटखटाते हैं, रेलगाडीके एजिन चलाते हैं—यह देखकर हम भूले हैं, और यह भूल ऐसी है कि किसी सभामें एकाध प्रबन्धकी आलोचना करनेसे मिट जायगी ऐसी आशा नहीं की जा सकती। इसलिए आशङ्का होती है कि आज हम 'जातीय शिक्षापरिषत्की रचना करनेके समय अपने देश और अपने इतिहासको छोड़कर जहाँ तहाँ उदाहरण खोजनेके लिए घूम फिरकर कहीं और भी एक संचेमे ढला हुआ कलका स्कूल न खोल बैठे। हम प्रकृतिका विश्वास नहीं करते, मनुष्यके प्रति भरोसा नहीं रखते, इसलिए कलके बिना हमारी गति नहीं है। हमने मनमें