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न समझते हों तो यह बात हमारे मनमें जरूर उठेगी कि बालकोको शिक्षाके समय ऐसी जगह रखना हमारा कर्तव्य है कि जहाँ वे स्वभावके नियमानुसार विश्वप्रकृतिके साथ घनिष्ट सम्बन्ध रखकर ब्रह्मचर्य पालनपूर्वक गुरुओंके सहवासमें ज्ञान प्राप्त करके मनुष्य बन सकें।
भ्रूणको गर्भके भीतर और बीजको मिट्टीके भीतर अपने उपयुक्त खाद्यसे परिवृत होकर गुप्त रहना पड़ता है । उस समय रात दिन उन दोनोंका एक मात्र काम यही रहता है कि खाद्यको खींचकर आपको आकाशके लिए और प्रकाशके लिए तैयार करते रहना । उस समय वे आहरण नहीं करते, चारो ओरसे शोपण करते हैं। प्रकृति उन्हें अनुकूल अन्तरालके भीतर आहार देकर लपेट रखती है-बाहरके अनेक आघात और अपघात उनपर चोट नहीं पहुंचा सकते और नाना आकर्षणोंमें उनकी शक्ति विभक्त नहीं हो पड़ती।
वालकोंका शिक्षा समय भी उनके लिए इसी प्रकारकी मानसिक भ्रूणअवस्था है । इस समय वे ज्ञानके एक सजीव वेष्टनके बीच रात दिन मनकी खुराकके भीतर ही बात करके बाहर की सारी विभ्रान्तियोंसे दूर गुप्त रूपसे अपना समय व्यतीत करते हैं, और यही होना भी चाहिए-यह स्वाभाविक विधान इस समय चारों ओरकी सभी बातें उनके अनुकूल होना चाहिए, जिससे उनके मनका सबसे आवश्यक कार्य होता रहे अर्थात् वे जानकर और न जानकर खाद्यशोषण करते रहें, शक्तिसंचय करते रहें और आपको परिपुष्ट करते रहें। ___ संसार कार्यक्षेत्र है और नाना प्रवृत्तियोंकी लीलाभूमि है-उसमें ऐसी अनुकूल अवस्थाका मिलना बहुत ही कठिन है जिससे बालक शिक्षाकालमें शक्तिलाभ और परिपूर्ण जीवनकी मूल पूँजी संग्रह कर सकें। शिक्षा समाप्त होनेपर गृहस्थ होनेकी वास्तविक क्षमता उनमें