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महासुखसागर आगर ज्ञान । अनंत सुखामृतभुक्त महान ॥ महाबलमंडित खंडितकाम । रमाशिवसंग सदा विसराम ॥२॥ सुरिंद फनिंद खगिंद नरिंद। मुनिंद जजै नित पादरनिंद ॥ प्रभु तुव अंतरभाव विराग। सुवालहिते व्रतशीलसों राग ॥३॥ कियो नहिं राज उदाससरूप । सुभावन भावत आतमरूप ॥ अनित्य शरीर प्रपंच समस्त। चिदातम नित्य मुखाश्रित पस्त ॥ ४॥ अशन नही कोउ शर्न सहाय। जहां जिय भोगत कर्मविपाय॥ निजातम के परमेसुर शर्न । नहीं इनके विन आपदहर्न ॥५॥ जगत जथा जलबुद्द येव । सदा जिय एक लहै फलभेव ॥ अनेकप्रकार धरी यह देह । भमें भवकानन आनन नेह ॥ ६ ॥ अपावन सात कुधात भरीय। चिदातम शुद्धसुभाष धरीय ॥ धरै इनसों जब नेह तयेव । सुआवत कर्म तवे वसुभाव ॥ ७॥ जवै तनभोगजगत्तउदास। धरै नव संवर निर्जरआस ॥ फर जब कर्मकलंक विनाश। लहै तय मोक्ष महासुखराश ॥ ८॥ तथा यह लोक नराकृत । नित्त । विलोकियते पटद्रव्यविचित्त ॥ सुआतमजानन बोधविहीन । धरै किन तत्वप्रतीत
प्रवीन ॥ ६॥ जिनागमशानरु संयमभाव । सबै निजज्ञान विना विरसाव ॥ सुदुर्लभ द्रव्य म सुक्षेत्र सुकाल। सुभाव सबै जिहतें शिव हाल ॥ १० ॥ लयो सब जोग सुपुन्य वशाय ।
हो किमि दीजिय ताहि गंवाय ॥ विचारत यों लवकान्तिक आय । नमें पदपंकज पुष्प चदाय ॥ १२ ॥ फाहो प्रभु धन्य कियो सुविचार। प्रबोधि सु येम कियो जु विहार ॥ तये
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