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|| शुक्लतणो चदु येम गन्यो ॥१४॥ सुपृथक्त वितर्कविचार सही। सुइकत्ववितर्कविचार गही॥ Fall पुनि सूक्ष्मक्रिया प्रतिपात कही। विपरीत क्रिया निरवृत्त लही ॥१५॥ इन आदिक सव परकाश । कियो। भवि जीवनको शिव स्वर्ग दियो ॥ पुनि मोच्छविहार कियो जिनजी। सुखसागर
मग्न चिरं गुनजी ॥ १६ ॥ अव मैं शरना पकरी तुमरी। सुधि लेहु दयानिधिजी हमरी ॥ भवव्याधि निवार करो अबही । मति ढील करो सुख द्यो सव ही॥
छंद घत्तानंद। शीतलजिन ध्यावौं भगति बढ़ावौं, ज्यों रतनत्रयनिधि पावौं । भवदंद नशावौं शिवथल जावौं, फेर न भौवनमें आवौं ॥१८॥ ___ ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथजिनेन्द्राय पूर्णा निर्वपामीति स्वाहा ॥ छंद मालनी-दिढ़रथसुत श्रीमान, पंचकल्याणधारी।
तिनपदजुगपद्म, जो जजै भक्तिधारी। सहसुख धनधान्यं, दीर्घ सौभाग्य पावै। अनुक्रम अरि दाहै, मोक्षको सो सिधावै ॥ १६ ॥
इत्याशीर्वादः पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् ।
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