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नागर पोतपम ॥३॥ कुहमानमयागदलोभहरं । अरि विनगयंद मृगिंद वरं ॥ वृषवारिदवृष्टन
सृष्टिहितू । परदष्टि विनाशन सुष्टुपितू ॥४॥ समवस्त्रतसंजुत राजतु हो । उपमा अभिराम विराजतु हो ॥ वर बारहभेद समाथितको । तित धर्म वखानि कियौ हितको ॥ ५॥ पहले मैं श्रीगनराज रजें। दुतियेमैं कल्पसुरी जु सजें ॥ त्रितिये गगनी गुनभूरि धरैं। चवथे तियजोतिप जोति भरें ॥ ६ ॥ तिय वितरनी पनमें गनिये । छहमें भुवनेसुर ती भनिये ॥ भुवनेश दशों थित सत्तम है। वसुमें वसुर्वितर उत्तर हैं ॥७॥ नवमें नभजोतिप पंच भरे । दशमें दिविदेव समस्त परे ॥ नरवृन्द इकादशमें निवसें । अरु बारहमें पशु सर्व लस ॥ ८॥ तजि और प्रमोद धर सय हो । समतारसमझ लसें तब ही ॥ धुनि दिव्य सुने तजि मोहमलं । गनराज असी धरि शानबलं ॥६॥ सबके हित तत्त्व बखान करें । करुनामनरंजित शर्म भरें । घरने पटदर्चतनं जितने। वर भेद विराजतु हैं तितने ॥१०॥ पुनि ध्यान उभे शिवहेत मुना। एक धर्म दुती सुकलं अधुना ॥ तित धर्म सुध्यानतणो गनियो । दशभेद लखे भ्रमको हनियो ॥ ११ ॥ पहलो अरि नाश अपाय सही। दुतियो जिनवैन उपाय गही ॥ त्रिति जीवविचे निजध्यान है। चवथो सु अजीव रमायन है ॥२२॥ पनमों सु उदयलटारन है। छहमों अरिरागनिवारण हे भरत्यागनचिंतन सप्तम मसुमो जितलोभ न आतम है ॥ १३॥ नवमों जिनकी गुनि सीप धरे । रशमो जिनभापित हेत फर ॥ इमि धर्मतणो वशमेद भन्यो। पुनि
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