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ताको पुज धरों चरननढिग, देहु अखयपद राय ॥ मेरी० ॥३॥
ॐ ही श्री पुष्पदन्तजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥ सुमन सुमनसम परिमलमंडित, गुजतअलिगन आय । ब्रह्मपुत्रमदभंजनकारन, जजों तुम्हारे पाय ॥ मेरी०॥४॥ ___ ॐ हीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥ घेवरवावर फेनी गोंझा, मोदन मोदक लाय । छुधावेदनीरोगहरनको, भेंट धरों गुणगाय ॥ मेरी०॥५॥
ॐ हीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥ II वाति कपूर दीप कंचनमय, उज्वल ज्योति जगाय ।
तिमिरमोहनाशक तुमको लखि, धरों निकट उमगाय ॥मेरी॥६॥ ___ ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदन्तजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥ दशवर गंध धनंजयके संग, खेवत हौं गुन गाय। अष्टकर्म ये दुष्ट जरै सो, धूम घूम सु उड़ाय ॥ मेरी०॥७॥