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रणरचना महान । जाके देखत सब पापहान ॥ जहँ तर अशोक शोभै उतंग । सब शोकतनो चूरै प्रसंग ॥ ११ ॥ सुर सुमनवृष्टि नमतें सुहात । मनु मन्मथ तज हथियार जात ॥ बानी जिन मुखसौं खिरत सार । मनुतवप्रकाशन मुकुर धार ॥ १२ ॥ जहँ चौंसठ चमर अमर दुरत । मनु सुजस मेघझरि लगिय तंत ॥ सिंहासन है जहँ कमलजुक्त। मनु शिवसरवरको कमलशुक्त ॥ १३॥ दु'दभि जित बाजत मधुर सार । मनु करमजीतको है नगार ॥ सिर छत्र फिरै त्रय श्वेतवर्ण । मनु रतन तीन त्रयताप हर्ण ॥ १४॥ तन प्रभातनों मंडल सुहात । भवि देखत निजभव सात सात मनुदपणा ति यह जगमगाय । भविजन भव मुख देखत सुआय ॥ १५॥ इत्यादि विभूति अनेक जान बाहिज दीसत महिमा महान ॥ ताको वरणत नहिं लहत पार । तौ अन्तरंगको कहै सार ॥ १६ ॥ अनअंत गुणनिजुत करि विहार। धरमोपदेश दे भव्य तार ॥ फिर जोगनिरोधि अधाति हानि । सम्मेदथकी लिय मुकतिथान ॥ १७ ॥ वृन्दावन बन्दत शीश नाय । तुम जानत हो मम उर जु भाय ॥ तातेका कहाँ सु यार वार । मनवांछित कारज सार सार ॥१८॥
.. छंद घत्तानंद। जय चंदजिनंदा आनंदकंदा, भवभयभंजन राजे है॥ रागादिकद्दा हरि सब फंदा, मुकतिमांहि थिति साजै हैं ॥१६॥
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