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तातें गाऊं सुगुण तुम, तुम ही होउ सहाय ॥२॥
छंद पद्धरि (१६ मात्रा।) जय चन्द्र जिनेन्द्र दयानिधान । भवकानन हानन दवप्रमान ॥ जय गरभजनममंगल दिनंद । भवि जीवविकाशन शर्मकंद ॥ ३॥ दशलक्षपूर्वकी आयु पाय । मनवांछित सुख भोगे जिनाय ।। लखि कारण हवे जगते उदास । चिंत्यो अनुप्रक्षा सुखनिवास ॥ ४ ॥ तित लौकांतिक योध्यो नियोग । हरि शिविका सजि धरियो अभोग ॥ तांपै तुम चढ़ि जिनचंदाय ताछिनकी शोभाको कहाय ॥५॥ जिन अंग सेत सित चमर ढार । सित छत्र शीस गलगुलकहार ॥ सित रतनजड़ित भूषण विचित्र । सित चन्द्रचरण चरचे पवित्र ॥ ६ ॥ सित तन धु ति नाकाधीश आप सित शिवका कांधे धरि सुचाप ॥ सित सुजस सुरेश नरेश सर्व । सित चितमें चिन्तत जात पर्व ॥ ७॥ सित चंदनगरतें निकसि नाथ । सित बनमे पहुचे सकलसाथ ॥ सितशिलाशिरोमणि स्वच्छछाँह । सित तप तित धारयो तुम जिनाह ॥ सित पयको पारण परमसार सित चंद्रदत्त दीनो उदार ॥ सित करमें सो पयधार देत । मानो यांधत भवसिन्धुसेत ॥ ६॥ मानों सुपुण्यधारा प्रतच्छ । तित अचरज पन सुर किय ततच्छ ॥ फिर जाय गहन सित तपकरंत । सित केवलज्योति जग्यो अनंत ॥ लहि समवस
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