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निलंजन नाच रच्यो तुमपास । नवों रसपूरित भाव विलास ॥ बजै मिरदंग हम हम जोर । चलै पग झारि मनांझन झोर ॥७॥ घना घन घंट करै धुनि मिष्ट । बजै मुहचंग सुरान्वित पुष्ट ॥ खड़ी छिनपास छिनैही अकाश । लघू छिन दीरघ आदि विलास॥८॥ ततच्छन ताहि विलै अविलोय । भये भवतै भयभीत बहोय ॥ सुभावत भावन बारह भाय । तहां दिवब्रह्मरिषीश्वर आय॥६॥ प्रबोध प्रभू सुगये निज धाम । तबै हरि आय रची शिवकाम ॥ कियो कचलौंच पिरागअरन्य । चतुर्थम ज्ञान लह्यो जगधन्य॥१०॥ धस्यो तब योग छमास प्रमान । दियो शिरियंस तिन्हैं इख दान ॥ भयो जब केवलज्ञान जिनेंद । समोसृतठाठ रच्यो सु धनेंद ॥११॥ तहां वृषतत्त्व प्रकाशि अमेस । कियो फिर निर्भयथानप्रवेस ॥ अनंत गुनातम श्रीसुखराश । तुमैं नित भव्य नमैं शिवआश॥१२॥
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