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पंच घाते महंत । त्रय आंगोपांग सहित भनंत ॥ १३ ॥ संठान संहनन छय छहेव । रसवरन पंच वसु फरस भेव ॥ जुगगंध देवगति सहित पुन्छ । पुनि अगुरु लघु उस्वास दुव्य ॥१४॥ परउपघातक सुविहाय नाम । जुत अशुभगमन प्रत्येक खाम ॥ अपरज थिर अथिर अशुभसुमेव । दुरभाग सुसुर दुस्सुर अमेव ॥ १५ ॥ अन आदर और अजस्य कित्त । निरमान नीच गोतौ विचित्त ॥ ये प्रथम बहत्तर दिय खपाय। तब दूजेमें तेरह नशाय ॥ १६ ॥ पहले साताबेदनी जाय । नरआयु मनुपगतिको नशाय ॥मानुपगत्यानु सु प्रवीय । पंचेंद्रिय जात प्रकृति विधीय ॥ १७ ॥ त्रसवादर परजापति सुभाग । आदरजुत उत्तम गोतपाग ॥ जस कीरत तीरथ प्रकृत जुक्त। ए तेरह छय करि भये मुक्त ॥ १८ ॥ जय गुन अनंत अविकार धार । वरनत गनधर नहिं लहत पार ॥ सम्मेदशेल सुरपति नमंत । तव मुकतथान अनुपम लसंत ॥ वृदावन बंदत प्रीतलाय । मम उरमै तिष्ठा हे जिनाय ॥ २० ॥
__ घत्तानंद। जय जय जिनस्वामी, त्रिभुवन नामी, मल्ल विमलकल्यानकरा॥ भवदंदविदारन आनंदकारन, अविकुमोदनिशिईश वरा ॥ २१॥
ॐ ही श्रीमल्लिनाथ जिनेन्द्राय महायं निर्वपामीनि स्वाहा ॥
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