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भारतंड। भविभवदधितारनको तरंड ॥२॥ जय गरभजनममंडित जिनेश । जय छायक समकित बुद्ध भेस ॥ चौथै किय सातो प्रकृति छीन । चौ अनंतानु मिथ्यात तीन ॥ ३ ॥ सातय किय तीनो आयु नाश। फिर नवें अंश नवमे विलास ॥ तिनमाहिं प्रकृति छत्तीस चूर। याभांति कियौ तुम ज्ञानपूर ॥ ४ ॥ पहिले मह सोलह कह प्रजाल। निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचाल ॥ हनि थानगृद्धिको सकल कुव्व । नर तिर्यग्गति गत्यानुपुव्व ॥ ५॥ इक वे ते चौ इंद्रीय जात । थावर आतप उद्योत घात ॥ सूच्छम साधारन एम चूर। पुनि दुतिय अंश वसु करयो दूर ॥ ६ ॥ चौ प्रत्याप्रत्याख्यान चार । तीजे सु नपुंसकवेद टार ॥ चौथे तियवेद विनाश कीन। पांचै हास्यादिक छहो छीन ॥ ७॥ नरवेद छठे छय नियत धीर । सातय संज्वलन क्रोधचीर ॥ आठवें संज्वलन मानभान । नवमे माया संज्वलन हान ॥ ८॥ इमि घात नवें दशमें पधार । संज्वलनलोभ तित हू विदार ।। पुनि द्वादशके द्वयअंशमाहिं । सोरह चकचूर कियो जिनाहिं ॥ ६॥ निद्रा प्रचला इक भागमाहिं । दुति अंश चतुर्दश नाश जाहिं ।। शानावरनी पन दरश चार । अरि अंतराय पांचों प्रहार ॥१०॥ इमि छय वेशठ केवल उपाय। धरमोपदेश दीन्हो जिनाय ॥नवकेवललब्धि विराजमान ।जय तेरमगुनथिति गुन अमान ॥११॥ गत चौदहमे है भाग तत्र । छव कीन बहत्तर तेरहत्र ॥ वेदनी असाताको विनाश । औदारि विक्रियाहार नाश ॥ १२॥ तैजस्यकारमानो मिलाय । तन पंचपंच बंधन विलाय॥ संघात
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