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गिरन्होन जाय ॥ आनन्द-सहित जुत-भगत भाय ॥ पुनि पिता सौंपि कर मुदित अंग। हरि तांडव-निरत कियो अभंग ।। पुनि स्वर्ग गयो तुम इन दयाल । वय पाय मनोहर प्रजापाल ॥ पटवंड विभो भोग्यौ समस्त । फिर त्याग जोग धालो निरस्त ॥ ६ ॥ तव धाति घात केवल उपाय | उपदेश दियो सवहित जिनाय ॥ जाके जानत भ्रम-तम विलाय । सम्यकदरशन निरमल लहाय । ७। तुम धन्य देव किरपा-निधान । अज्ञान-छपा-तमहरन भान ॥ जय स्वच्छगुनाकर शुक्तशुक्त । जय स्वच्छ सुकामृत भुक्तभुक्त ॥८॥ जय भोभयभंजन कृत्यकृत्य । मैं तुमरो हो निज भृत्य भृत्य ॥प्रभु अशरन शरन अधार धार । मम विघ्नतूलगिरी जार जार॥ जय फुनय-यामिनी सूर सूर । जय मनवंछित सुख पूर पूर॥ मम करम वध दिढ़ चूर चूर । निज़सम आनन्द दे भूर भूर।। ०॥ अथवा जव लों शिव लहौं नाहि। तव लों ये तो नित ही लहाहिं । भव भव श्रावक कुलजनमसार । भव भव सतमत सतसंग धार ॥१॥ भव भव निज आतम-तच्च-शान । भव भव तप संजम शील दान ॥ भव भव अनुभव नित चिदानंद । भव भव तुम आगम हे जिनंद ॥१२॥ भव भव समाधिजुत मरन सार। भव भव व्रत चाहों अनागार ॥ यह मोकों हे करुणानिधान । सब जोग मिलो आगम प्रमान ॥१३॥ जब लो शिव सम्पति लहों नाहिं । तबलों में इनकों नित लहाँहि ॥ यह अरज हिये अवधारि नाथ । भवसंफट इरि कीजै सनाथ ॥१४॥
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