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जो श्रीपतिपद जुगल, उगल मिथ्यात जजै भव । ताके दुख सब मिटहिं, लहै आनंदसमाज सब ॥ सुर-नर-पति-पद भोग, अनुक्रमः शिव जावै । वृंदावन यह जानि धरम, जिनको गुन ध्यावै ॥ १॥
इत्याशीर्वादः परिपुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् । श्रीशान्तिनाथ जिनपूजा।
मत्तगयंद छंद । ( शब्दाडम्वर तथा जमकालंकार)। या भवकाननमें चतुरानन, पापपनानन घेरि हमेरी।
आतमजान न मान न ठान न, वान न होइ हिये सठ मेरी॥ तामद भानन आपहि हो, यह छान न आन न आननटेरी । आन गही शरलागतको, अब श्रीपतजी पत राखहु मेरी॥१॥
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