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धार ते पावे मोच्छवित्त ॥ ४॥ मैं तुम मुख देवत आज पर्म । पायो निजातमरूप धर्म ॥ मोकों अय भौभयतें निकार। निरभयपद दीजै परमसार ॥५॥ तुम सम मेरो जगमे न कोय । तुमहीतं सब विधि काज होय ॥ तुम दयाधुरंधर धीर वीर । मेटी जगजनकी सफल पीर ॥६॥ तुम नीतनिपुन विनरागदोप। शिवमग दरसावतु हो भदोप ॥ तुम्हरे ही नामतने , प्रभाव । जगजीव लहें शिव-दिव-सुराव ॥ ७॥ तातें मैं तुमरी शरण आय । यह अरज करतु हो शीस नाय ॥ भवबाधा मेरी मेट मेट । शिवरासों करि भेट भेट ॥ ८॥ जंजाल जगतको चूर चूर । आनंद अनूपन पूर पूर ॥ मति देर करो सुनि अरज एव । हे दीनदयाल जिनेश देव ॥ ६॥ मोंको शरना नहिं और ठौर । यह निहचै जानों सुगुन-मौर ॥ वृन्दावन, बंदत प्रीति लाय । सब विघन मेट हे धरम-राय ॥ १०॥
छंद घत्तानंद (मात्रा ३१)। जय श्रीजिनधर्म, शिवहितपम. श्रीजिनधर्म उपदेशा। तुम दयाधुरंधर विनतपुरंदर, कर उरमंदर परवेशा॥ ११ ॥ ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय पूर्णार्धं निवपामीति स्वाहा ॥ ११ ॥
छंद मदावलिप्तकपोल (मात्रा २४)।
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