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ॐ ह्रीं श्रीपौषशुक्लपूर्णिमायां केवलज्ञानमण्डिताय श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ नि० ॥
जेठशुकल तिथि चौथकी हो। शिव समेदते पाय ॥
जगतपूजपद पूजों। पूजों। हो अबोर ॥ धरम०॥ ४॥ ॐ ह्रीं ज्येष्ठशुक्लचतुर्थ्या मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घ नि० ॥ ५॥.
जयमाला। ___दोहा ( विशेपोक्ति अलंकार)। घनाकार करि लोक पट, सकल उदधि मसि तंत। लिावै शारदा कलम गहि, तदपि न तुव गुन अंत ॥१॥
___ छंद पद्धरी (मात्रा १६)। जय धरमनाथ जिन गुनमहान । तुम पदको मैं नित धरों ध्यान ॥ जय गरभजनम तप शानयुक्त। वर मोच्छ सुमंगल शर्म-भुक्त ॥ २ ॥ जय चिदानंद आनंदकंद । गुनबृन्द सु ध्यावन मुनि अमंद ॥ तुम जीवनिके विनु हेत मित्त। तुम ही हो जगमें जिन पबित्त ॥३॥ तुम समवसरणमें तत्वसार । उपदेश दियो हे अति उदार ॥ ताकों जे भवि निजहेत चित ।
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