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ॐ हीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर । संवौषट् ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ । : ठः॥२॥ ॐ हीं श्रोशान्तिनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सनिहितो भव भव वपट् ॥ ३॥
अष्टक। छंद त्रिभंगी। अनुप्रयासक । (मात्रा ३२ जगनवर्जित)। हिमगिरिगतगंगा,--धार अभंगा, प्रासुक संगा, भरि भृगा। जरमरनभृतंगा, नाशी अघंगा, पूजि पदंगा मृदुहिंगा॥ श्रीशान्तिजिनेशं, नुतशक्र शं, वृषचक्र शं, चक्रशं। हनि अरिचक्रशं, हे गुनधेशं, दयानृतेशं, मक्रशं॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति० ॥१॥
वर बावनचंदन, कदलीनंदन, धनआनंदन सहित घसों। भवतापनिकन्दन, ऐरानंदन, वंदि अमंदन, चरनवसों॥श्री०॥२॥ ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय भयतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति० ॥२॥
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