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३२] - तारुण्य या प्रौढावस्था में यदि सहशिक्षा हो तो वह ब्रह्मचर्य पालन में बाधक होती है। अच्छे संस्कारों वाले बालक बालिकाए' भले ही अपने को कायिक संबंध से बचालें किन्तु मानसिक अपवित्रता से बचना तो बहुत कठिन है । और जब मन में अपवित्रता उत्पन्न हो जाती है तो कायिक अधः पतन होते क्या देर लगती है ? तरुण अवस्था में अनंगक्रीड़ा की स्थिति उत्पन्न होने का खतरा बना रहता है । अतएव माता-पिता आदि का यह परम कर्तव्य है कि वे अपनी सन्तति के जीवन व्यवहार पर बारीक नजर रक्खें और कुसंगति से बचाने का यत्न करें। उनके लिए ऐसे पवित्र वातावरण का निर्माण करें कि वे गंदे विचारों से बचे रहें और खराब आदतों से परिचित ही न हो पाएं।
बालकों को कुसंस्कारों से बचाने और सुसंस्कारी बनाने के लिए यह आवश्यक है कि बड़े-बूढ़े घर का वातावरण शुद्ध और सात्विक रखने की सांवधानी बरौं । जिस घर में धर्म के संस्कार होते हैं, धर्मकृत्य किये जाते हैं, सन्तमहात्माओं के जीवन चरित पढ़े-सुने जाते हैं, सत्साहित्य का पठन-पाठन होता है और धर्म शास्त्रों का स्वाध्याय किया जाता है, जहां हंसी-मजाक में भी गाली ' गलौज का या अशिष्ट शब्दों का प्रयोग नहीं किया जाता और नैतिकता पूर्ण जीवन व्यतीत करने का आग्रह होता है, उस घर का वातावरण सात्विक रहता है और उस घर के बालक सुसंस्कारी बनते हैं । अतएव माता-पिता आदि बुजुर्गों का यह उत्तरदायित्व है कि बालकों के जीवन को उच्च, पवित्र और सात्विक बनाने के लिए इतना अवश्य करें और साथ ही यह सावधानी भी रक्खें कि बालक कुसंगति के चेप से बचा रहे ।
(४) परविवाह करण-जैसे ब्रह्मचर्य का विघात करना पाप है उसी प्रकार दूसरे के ब्रह्मचर्य पालन में बाधक बनना और मैथुन के पाप में सहायक बनना भी पाप है। अपने आश्रित बालक-बालिकाओं का विवाह करके उन्हें कुमार्ग से बचाना और सीमित ब्रह्मचर्य की अोर जोड़ना तो गृहस्थ की जिम्मेवारी है, मगर धनोपार्जन आदि के उद्देश्य से विवाह संबंध करवाना श्रावक धर्म की मर्यादा से बाहर है। अतएव यह भी ब्रह्मचर्य-अणुव्रत का अतिचार माना गया है ।