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नहीं है। परन्तु हमें सर्व प्रथम जीवन की कला का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। उसे प्राप्त करने में अधिक समय नहीं लगता। अगर आपको जीवन के उत्तम कलाकार गुरु का सानिध्य मिल गया तो उसे पाने में विशेष कठिनाई भी नहीं । होती । बस, भीतर जिज्ञासा गहरी होनी चाहिए । जीवन की कला का ज्ञान प्रयोजन भूत ज्ञान है और उसे पा लिया तो सभी कुछ ..पा. लिया। जिसने उसे नहीं पाया उसने और सब कुछ पा लेने पर भी कुछ भी नहीं पाया।
जीवन-कला का ज्ञान न होता तो स्थूलभद्र काम विजय पर वेश्या रूपकोषा को श्राविका नहीं बना पाते। उस समय उन्हें पूर्वश्रुत का ज्ञान नहीं था,
मगर जीवन की कला को उन्होंने भलीभांति अधिगत कर लिया था। उसी के .. सहारे वे आगे बढ़ सके और बड़ी से बड़ी सफलता प्राप्त कर सके। ..
:: रूप-कोषा को जीवन की कला प्राप्त करने में स्थूलभद्र का अनुकूल निमित्तः मिल गया । कई लोग समझते हैं कि निमित्त कुछ नहीं करता, केवल .. उपादानाही कार्यकारी है। मगर यह एकान्त युक्ति और अनुभव से बाधित है। निमित्त कारण कुछ नहीं करता तो उसकी आवश्यकता ही क्या है ? निमित्त । कारण के अभाव में अकेले उपादान से ही कार्य क्यों नहीं निष्पन्न हो जाता ? उदाहरण के लिए कर्मक्षय को ही लीजिए । कर्मक्षय या मोक्ष का उपादान . कारण आत्मा है। अगर आत्मा के द्वारा ही कर्मक्षय होता है तो फिर प्रत्येक प्रात्ना मुक्त हो जाना चाहिए । आत्मा अनादिकालीन है, उसे अब तक संसारअवस्था में क्यों रहना पड़ रहा है ।
कहा जाता है कि निमित्त कारण करता कुछ नहीं है. फिर भी उसकी उपस्थिति आवश्यक है। मगर इस कथन में विशेष तथ्य नहीं है। जो कुछ भी नहीं करता, प्रथम तो उसे निमित्त कारण ही नहीं कहा जा सकता। कदाचित्
कहा भी जाय तो उसकी उपस्थिति की आवश्यकता ही क्या है? कुछ न करने . .: वाले पदार्थ की उपस्थिति यदि आवश्यक है तब तो एक कार्य के लिए संसार ..
के सभी पदार्थों की उपस्थिति ' आवश्यक होगी और उनकी उपस्थिति होना संभव न होने से कोई कार्य ही नहीं हो सकेगा।