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वशीभूत होकर पर को सुख-दुःखदाता समझता है । इस भ्रम के कारण तेरी बहुत हानि होती है। जिसके निमित्त से सुख प्राप्त होता है उसीको तू सुखदाता समझकर उस पर राग करता है और जिसके निमित्त से दुःख प्राप्त होता है. उसे दुःखदाता समझकर उस पर द्वेष धारण करता है । राग-द्व ेष की इस भ्रम जनित परिणति से श्रात्मा मलीन होता है। इसके अतिरिक्त इससे चित्त को
शान्ति होती है और अनेक प्रकार के अनर्थ भी उत्पन्न होते हैं ! तू दूसरों को अपना शत्र, मान कर उनसे वदले लेने का प्रयत्न करता हैं। इससे आत्मा में अशुद्धि की एक लम्बी परम्परा चल पड़ती है ।
..इसके विपरीत, जिसने इस सचाई तो समझ लिया है कि श्रात्मा स्वयं ही अपने सुख-दुख का निर्माता है, वह घोर से घोर दुखः का प्रसंग उपस्थित होने पर भी, अपने आपको ही उसका कारण समझ कर समभाव धारण करता है और उसके लिए किसी दूसरे को उत्तरदायी नहीं ठहराता । आगम में भी स्पष्ट कहां गया है
अप्पा कत्ता विकत्ता य..
श्रात्मा ही अपने सुख दुख का कर्ता और हर्ता है ।
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तात्पर्य यह है कि यदि पाप कर्म का उदय न हो तो दूसरा कोई भी श्रापको कष्ट नहीं दे सकता, अतएव बहिर्हष्टि का त्याग कर अन्तर्हष्टि को अपना और वाह्य निमित्त को ही सब कुछ न समझो ।
आंधी के समय साधारण फूस से आँख जाते जाते बचती है तो फूस को देवता नहीं माना जा सकता ।
सरागी देवों का असम्मान नहीं करना है, परन्तु उनसे मांगना भी नहीं है । देवाधि देव के चरणों में वन्दन किया जाय तो देवों का प्रसन्न हो जाना सामान्य बात है । सरागी देवों को वन्दन, नमन, आलाप, संलाप, आदान श्रीर प्रदान, ये छह बातें नहीं करनी चाहिए।