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३७० ] भय की भावना से देव की पूजा करता है तो उसकी समझ गलत है। हम जिस शुद्ध प्रात्मस्वरूप को प्राप्त करना चाहते हैं, उसे जिन्होंने प्राप्त कर लिया है, जिस पथ पर हम चल रहे हैं उस पर चलकर जो मंजिल तक पहुँच चुके हैं।'' वही हमारे लिए अनुकरणीय हैं। हम उन्हीं को आदर्श मानते हैं और उन्हीं के चरण चिन्हों पर चलते हैं। यही हमारी आदर्शपूजा समझो या देवपूजा समझ लो!
___ ज्ञानवल के अभाव में मानव 'तत्त्व को नहीं समझ पाता। बहुत लोग समझते हैं कि हमारे सुख-दुःख का कारण दैवी है । अर्थात् देव के रोप से दुःख और तोष से सुख होता है । पर इस समझ में भ्रान्ति है। यदि आपके पापकर्म का उदय नहीं है तो दूसरा कोई भी आपको दुखी नहीं बना सकता। सुख हो या दुःख, उसका अन्तरंग कारण तो हमारे भीतर ही विद्यमान होता है। ... जहाँ बीज होता है वहीं अंकुर उगता है, इस न्याय के अनुसार जिस .. प्रात्मा में सुख-दुःख की उत्पत्ति होती है, उसीमें उसका कारण होना चाहिए। ..
इससे यही सिद्ध होता है कि अपना शुभाशुभ कर्म ही अपने सुख-दुःख का जनक --- ... है। प्राचार्य अमितगति कहते हैं- . . . . . . .. स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, . . फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् ।
परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं; ....... स्वयं कृतं कर्म निरर्थ कं तदा ।।...
.अर्थात् आत्मा ने पूर्वकाल में जो शुभ और अशुभ कर्म उपाजित किये.. ... हैं, उन्हीं का शुभ और अशुभ फल उसे प्राप्त होता है। अगर आत्मा दूसरे के :
द्वारा प्रदत्त फल को भोगने लगे तो उसके अपने किये कर्म निरर्थक-निष्फल हो जाएंगे।
आत्मन् ! तू सब प्रकार की भ्रान्तियों को त्याग कर सत्य तत्त्व का::. श्रद्धान कर । तुझे कोई भी दूसरा सुखी या दुखी नहीं बना सकता ! तू भ्रम के