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... [३६३ समझ कर किसी भी रोग में किसी भी औषध का प्रयोग करने वाला बुद्धिमान नहीं गिना जाएगा। तातर्य यह है कि समभाव वहीं प्रशस्त है जो विवेकयुक्त हो । विवेकहीन समभाव गलत दृष्टि है । वृद्धता के नाते सेवनीय दृष्टि से एक साधारण वृद्ध में और वृद्ध माता-पिता में अन्तर नहीं है, परन्तु उपकार की
दृष्टि से अन्तर है । माता-पिता का जो महान् उपकार है उसके प्रति कृतज्ञता ___ का विशिष्ट भाव रहता ही है । इसे राग-द्वेष का रूप नहीं कहा जा सकता।
यही बात अपने वन्दनीय देव और अन्य देवों के संबंध में भी समझना चाहिए । । दूसरों के प्रति द्वेष न रखते हुए अपने आराध्य देव के प्रति पूर्ण निष्ठा तथा .. श्रद्धा-भक्ति रखी जा सकती है। . :. .. . .
. . . . .... आनन्द श्रावक ने इन सब बातों की जानकारी प्राप्त की। किन अपवादों से छूट रखनी है, यह भी उसने समझ लिया। ... ... ... ...........
साधु जगत् से निरपेक्ष होता है । किसी जाति, ग्राम या कुल के साथ उसका विशिष्ट सम्बन्ध नहीं रह जाता। साधना ही उसके सामने सब कुछ है। मगर गृहस्थ का मार्ग सापेक्ष है । उसे घर, परिवार, नाति, समाज आदि की अपेक्षा रखनी पड़ती है । उसे व्यवहार निभाना होता है । उनका सम्बन्ध केवल श्रमणवर्ग, संघ और अपने भगवान्-आराध्य देव के साथ होता है । जनरंजन के स्थान पर जिनरंजन करना उसका लक्ष्य होता है । जिनरंजन के मार्ग से गड़-. बड़ाया कि उसके हृदय को बहुत क्षोभ होता है।
... कभी-कभी जीवन में एक दुविधा आ खड़ी होती है । हम दूसरे को राजी रक्खें अथवा उसका हित करें ? राजी रखने से उसका हित नहीं होता और हित करने जाते हैं तो वह नाराज होता है ? ऐसी स्थिति में किसे प्रधानता देंनी चाहिए ? जिसके अन्तःकरण में तीव्र करुणा भाव विद्यमान होगा, एवं अपना
स्वार्थ साधन जिस के लिए प्रधान न होगा, वह दूसरे को राजी करने के बदले । - उसके हित को ही मुख्यता देगा । हाँ, जिसे दूसरे से अपना मतलब गांठना है:
वह उसके हित का ध्यान करके भी उसे राजी करने का प्रयत्न करता है, किन्तु
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