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३६२ ] प्रत्येक प्राणी पर मैत्रीभाव रखने का आदेश दिया है और प्राणियों में अस तथा स्थावर जीवों की गणना की है। स्थावर जीवों में पृथ्वीकायिक, जलकायिक और वनस्पतिकायिक आदि वे जीव भी परिगणित है जिन्हें अन्य धर्मों के उपदेष्टा ... अपनी स्थूल दृष्टि के कारण जीव ही नहीं समझ सके । विज्ञान का आज बहुत विकास हो चुका है, मगर जहां तक प्राणि शास्त्र का संबंध है, जैन दर्शन विज्ञान से आज भी बहुत आगे है । जैन महर्षि अपनी दिव्य दृष्टि के कारण जिस गहराई तक पहुँचे, विज्ञान को वहां तक पहुँचने में अगर कुछ शताब्दियां और लग जाएँ. तो भी आश्चर्य की बात नहीं ! अभी तक स्थावर जीवों में से विज्ञान ने सिर्फ वनस्पति कायिक जीवों को समझ पाया है, चार प्रकार के स्थावरों को समझना अभी शेष है। ....... . .. .. . .. ... ....
परमाणु आदि अनेक जड़ पदार्थों के विषय में भी जैन साहित्य में ऐसी प्ररूपणाएं उपलब्ध हैं जिन्हें वैज्ञानिक मान्यताओं से भी आगे की कहा जा
सकता है । किन्तु इसके संबंध में यहाँ विवेचन करना प्रासंगिक नहीं। ... हां, तो जैनागम की दृष्टि से जीवों का दायरा बहुत विशाल हैं। उन सब ... के प्रति मैत्री भावना रखने का जैनागम में विधान किया गया है। जिसकी मैत्री - की परिधि प्राणि मात्र हो उसमें संकीर्णता नहीं आ सकती। चाहे कोई निकट. वर्ती हो अथवा दूर वर्ती, सभी को अहित से बचाने की बातः सोचना है ! उसमें
किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करना है। किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं सम- झना चाहिए कि किसी प्रकार के अनुचित साम्य को प्रश्रय दिया जाय। गुड़ और
गोबर को एक-सा समझना समदर्शित्व नहीं है । जिनमें जो वास्तविक अन्तर हो, उसे तो स्वीकार करना ही चाहिए मगर उस अन्तर के कारण राग द्वेष नहीं करना चाहिए। विभिन्न मनुष्यों में गुण-धर्म के विकास की भिन्नता होती है, समभाव.... का यह तकाज़ा नहीं उस वास्तविक भिन्नता को अस्वीकार कर दिया जाय। झयोपशम के भेद से प्राणियों में ज्ञान की भिन्नता होती है। किसी में मिथ्याज्ञान और किसी में सम्यग्ज्ञान होता है । कोई सर्वज्ञता प्राप्त कर लेता है, कोई नहीं कर पाता । इस तथ्य को स्वीकार करना ही उचित है । सब ओषधों को समान
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