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था। वह मानता था कि कन्दमूल. भक्षण में हिंसा अवश्य है। अंबड़ : जल से दो बार स्नान करता था, मगर उसने जल को मर्यादा करली थी। अदत्तादान का ऐसा त्यागी था कि दूसरे के दिये बिना पानी भी ग्रहण नहीं करता था।........... .......
एक बार वह कहीं जा रहा था। सभी शिष्य उसके साथ थे। रास्ते में. . प्यास लगी। मार्ग में नदी भी मिली किन्तु जल ग्रहण करने की अनुज्ञा देने .. ..वाला कोई नहीं था। प्यास के मारे कंठ सूख गया, प्राण जाने का अवसर प्रा
पहुँचा, फिर भी प्रदत्त जल ग्रहण नहीं किया। वह दुर्बल मनोवृति का नहीं .. - था। यद्यपि कहा जाता है आपकाने मर्यादा नास्ति' अंथात् विपदा आने पर .. -: मर्यादा भंग कर दी जाती है, परन्तु उसने इस छूट का लाभ नहीं लिया। अन्त
में अनशन धारण करके समाधिमरण पूर्वक प्राण त्याग दिये, किन्तु प्रण का - परित्याग नहीं किया। ऐसी दृढ़ मनोवृत्ति होनी चाहिए साधक की!
: साधना यदि देशविरति की है और उसे सर्वविरति की मानी जाय तो . यह दृष्टिदोष है । जो ज्ञानी हो और आरंभ तथा परिग्रह से विरत हो उसे गुरु .. बनाना चाहिए । साधना के मार्ग में आगे बढ़ने के लिए साधक के हृदय में श्रद्धा.
को दृढ़ता तो चाहिए ही, गुरु का पथ प्रदर्शन भी आवश्यक है । गुरु के प्रभावं.
में अनेक प्रकार की भ्रमणाएं घर कर सकती हैं जिनसे साधना अवरूद्ध हो .:. जाती है और कभी-कभी विपरीत दिशा पकड़ लेती है। ...... जो व्यक्ति प्रानन्द की तरह व्रतों को ग्रहण करता है, उसकी मानसिक..
दुर्बलता दूर हो जाती है और वस्तु के सही रूप को समझने की कमजोरी भी निकल जाता है
काल जैन सिद्धान्त की दृष्टि अत्यन्त व्यापक हैं। उसके उपदेष्टाओं की दृष्टि दिव्य थी, लोकोत्तर थीं। अतएवं सूक्ष्म से सूक्ष्म प्राणी भी उनकी दृष्टि से प्रोझल नहीं रह सके । उन्होंने अपने अनुयायियों को 'सत्त्वेषु मैत्रीम्' अर्थात्