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प्रवृति प्रत्येक प्राणी के लिए सहज बनी हुई है, बच्चों को खुराक चबाने की कला नहीं सिखलानी पड़ती। भूख मिटाने के लिए खाना चाहिए, इस उपदेश की आवश्यकता नहीं होती । बच्चे नौजवान होकर उदर-पूर्ति के साधन श्रावश्यकता होने पर जुटा लेते हैं। नौ जवानों को सुन्दर वस्त्र पहनने की शिक्षा नहीं दी जाती । ये सब बातें देखा देखी श्राप ही सीख ली जाती हैं ।
सद्विचारों एवं धर्म को सुरक्षित रखने के लिए तथा देश की संस्कृति की रक्षा करने के लिए शस्त्रधारी सैनिकों से काम नहीं चलता । इसके लिये शास्त्रधारी सैनिक चाहिए । सन्त महन्तों के नेतृत्व में शास्त्रधारी सैनिक देश की पवित्र संस्कृति की रक्षा करते थे । सन्तों को सदा चिन्ता रहती थी कि हमारी पावन और आध्यात्मिक संस्कृति प्रक्ष ुण्ण बनी रहे प्रौर उसमें अपावनता का सम्मिश्रण त होने पावे जिससे मानव सहज ही जीवन के उच्च प्रादर्शों तक पहुँच सके ।
“संभूति विजय का प्रयास था कि शास्त्रधारी सैनिकों की शक्ति कम न होने पावे । उनका प्रयास बहुत अशों में सफल हुआ। सर्वाश में नहीं । स्थूलभद्रजी की स्खलना ने उसमें बाधा डाल दी। संघ के अधिक प्राग्रह पर शेष चार पूर्वो को सूत्र रूप में देना ही उन्होंने स्वीकार किया । स्थूभद्र स्वयं इस विषय में कुछ अधिक नहीं वह सकते थे । उनकी स्खलता इतना विषम रूप धारण कर लेगी, इसकी उन्हें लेशमात्र भी कलाना नहीं थी । इस विषम रूप को सामने आया देखकर उन्हें हार्दिक वेदना हुई, पश्चाताप हुआ। ऐसा होना स्वाभाविक ही था क्योंकि ज्ञानवान् साधक से जब भूल हो जाती है तो वह जल्दी उसे भूल नहीं सकता ।
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जैन शास्त्र में जाति शब्द का वह अर्थ नहीं लिया जाता जो आज कल लोक प्रचलित है । प्रचलित अर्थ तो अर्वाचीन है। शास्त्रों में मातृ पक्ष को जाति और पितृ पक्ष को कुल कहा गया है
'मातृपक्षों जाति, पिधु पक्षः कुलम् !