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- बारह यतों और उनके अतिचारों को श्रवण कर प्रानन्द ने प्रभु की
साक्षी से व्रतों को ग्रहण करने का संकल्प किया। व्रतों को पालन तो यों भी । किया जा सकता है तथापि देव या गुरु के समक्ष यथाविधि संकल्प प्रकट
करना ही उचित है । ऐसा करने से संकल्प में दृढ़ता आती है और अन्तःकरण · · के किसी कोने में कुछ दुर्वलता छिपी हो तो वह भी दूर हो जाती है। किसी..
. नाजुक प्रसंग के आने पर भी उस संकल्प से विचलित न होने में सहायता . . मिलती है । अपने मन में ही व्रत पालन का विचार कर लेने से वह दृढ़ता नहीं . उत्सन्न होती और समय पर विचलित होने की संभावना बनी रहती है । अत
एवं जो भी व्रत अंगीकार किया जाय उसे गुरु की साक्षी से ग्रहण करना ही.....
श्रेयस्कर है। कदाचित् ऐसा योग न हो तो भी धर्मनिष्ठ बन्यों के समक्ष - अपने संकल्प को प्रकट कर देना चाहिए। . . . ... अानन्द सोचता है कि मैं अत्यन्त सौभाग्यशाली हूँ कि मुझे साक्षात्. - जिनेन्द्र देव तीर्थ कर के चरणों में अपने जीवनोत्थान आत्मकल्याण के लिए
व्रतग्रहण का सुअवर प्राप्त हो सका । यह सोच कर उसे अपूर्व प्रमोद हुआ। उसने निश्चय किया कि मैं अपने इस प्रमोद को अपने तक ही सीमित नहीं : रक्खू गा । मैं अपने मित्रों और वन्धुजनों को भी इस आनन्द का भागी बनाऊंगा । मैं उनके जीवन को भी सफल बनाने में सहायक वनूगा।
साधक स्वयं ग्रहणीय वातों को गुरुजनों से ग्रहण कर के दूसरों में - प्रचारित करता है। उसे वह धर्म की सच्ची प्रभावना मानता है 1 सच्चा साधक ...
उन बातों का संरक्षण और संवर्द्धन करता है । यदि साधक सद्विचारों को . अपने तक ही सीमित रखता है और उन्हें प्रचारित नहीं करता तो वे विचार
वृद्धि नहीं पाते । भारत की अनेक विद्याएँ और औषधियों इसी कंजूसी के फलस्वरूप नष्ट हो गई और हो रही हैं।
धर्म सीमित और अधर्म विस्तृत हो जाता है तो वासनों का दौर शुरू होती है । वासना सहज प्रवृत्ति है । मनुस्मृति में कहा है
प्रवृत्तिरेषा भूतानां; निवृत्तिस्तु महाफला ।