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.. समाधिमरण के पांच दूषण हैं, जिनसे साधक बचता है। वे इत्त ... - प्रकार हैं
.: (१) समाधिमरण की साधना अंगीकार करके पुत्र, कलत्र प्रादि की .चिन्ता करना दोष है । इस लोक सम्बन्धी किसी भी प्रकार की आकांक्षा का
उदय होने से यह दोष होता है। .................... .. (२) परलोक सम्बन्धी कामना करना भी दोष है । मुझे इन्द्र का पद .
प्राप्त हो जाए, मैं चक्रवर्ती बन जाऊं, यह अभिलाषा भी इस व्रत को दूषित - करती है। ... . ......... ......... ......
(३) समाधिमरण के समय अादर-सम्मान होते देख कर अधिक समय तक जीवित रहने की इच्छा करना भी तेष है। ...
. (४) कष्ट से छुटकारा पाने के उद्देश्य से, घबरा कर शीघ्र मरण की इच्छा करना। .. ... (५) अच्छा विस्तर चाहना, तेल आदि की मालिश करना, विषयों की आकांक्षा करना! . . . . . . . . . .. अभिप्राय यह है कि अपने अन्तिम समय में भावना को निर्मल बनाये . रखने का प्रयत्न करना चाहिये। किसी भी प्रकार की विकारयुक्त विचारधारा को पास भी नहीं फटकने देना चाहिये। पूरी तरह समभाव एवं. विरक्तिभावः . जागृत करना चाहिए । विवेकशाली बत्ती जब साधना के मार्ग में सजग होकर कदम बढ़ाता है तो मरण के समय क्यों असावधानी बरतेगा ? व्रती निरन्तर : . इस प्रकार की भावना में रमण करता है
निन्दन्तु नीनिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु,
. लक्ष्मी समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम् । . अचैव. वा मरणमस्तु युगान्तरे वा,
न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ।।