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पाप के कटुक फल और उससे उत्पन्न होने वाली विषम यातनाएं बतला कर लोगों को पाप से मोड़ने की ग्रावश्यकता है । पापाचार न केवल परलोक में ही वरन् इस लोक में भी दुःखों का कारण होता है । इस तथ्य को भगवान महावीर के मुख से जान कर श्रमणोपासक श्रानन्द ने बारह व्रतों को अंगीकार किया। तत्पश्चात् मृत्यु को सुधारने के लिए पांच दूषण से बचने का उपाय प्रभु ने आनन्द को बतलाया ।
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जब अन्तिम समय ग्राया दिखाई दे तव समाधिमरण गीकार किया जाता है। समाधिमरण अंगीकार करने से पहले संलेखना की जाती है। सलेखना में सब प्रकार के कंपायों को क्षीण करना होता है | 'सम्यक्काय कवाय 'लेखना सल्लेखना' अर्थात् सम्यक प्रकार से काय और कषायों को कृश करना सल्लेखना या संलेखना है । इस प्रकार जब बाहर से काय को श्रीर भीतर से कपाय को कृश कर दिया जाता है तब साधक समाधिमरण को गीकार करता है । समाधिमरण संसार से सदा के लिए छुटकारा पाने का साधन है । "कहा भी है
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एगम्मि भवग्राहणे, समाधि मरणेण जो मइदि जीवो । रंग है हिदि बहुसो, सराट्ठ भवे पमोत्तूण ॥
अर्थात् एक भव में जो जीव समाधिमरण पूर्वक शरीर का त्याग करता वह सात-ग्राउ भवों से अधिक कील तक संसार में भ्रमण नहीं करता ।
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समाधिमरण की भूमिका तैयार करता है। संलेखना करके साधक भूमिका का निर्माण कर लेता है, आहार का, अठारही प्रकार के पाप
जिस शरीर का बड़े
का एवं शरीर के प्रति ममता का परित्याग कर देता है । यत्न से पालन-पोपण किया था, सर्दी-गर्मी और रोगों से
बचाया था, उसके
प्रति मन में लेश मात्र भी ममत्व न धारण करते हुए शान्ति और समभाव से, आत्मा-परमात्मा के स्वरूप का चिन्तन करते हुए उसे त्याग देना पण्डित - मरण है ।