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ऐसा धार्मिक व्यक्ति धर्मस्थान में अवश्य जाएगा और वहां विशिष्ट साधना भी करेगा, मगर यही सोचेगा कि धर्मस्थान में प्राप्त की हुई प्रेरणा मेरे जीवन व्यवहार में काम ग्रानी चाहिए। अगर जीवन के व्यवहार श्रधर्ममय बने रहे तो धर्मस्थान में ली हुई शिक्षा किस काम की ? वह शिक्षा जीवन में प्रोत-प्रोत हो जानी चाहिए ।
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जिसने धर्म के मर्म को पहचान लिया है, उसकी दृष्टि निरन्तर श्रात्मतत्व पर टिकी रहती है । वह कोई भी कार्य करे मगर आत्मा को विस्मृत नहीं करता । वह इस तथ्य को पूरी तरह हृदयंगम कर लेता है कि मानव जीवन का सर्वोपरि साध्य आत्महित है । अगर हम श्रात्मा के हिताहित का विचार त कर सके, आत्मोत्थान और श्रात्मपतन के कारणों को त समझ सके तो हमारी विचार शक्ति की सार्थकता ही क्या हुई ? जड़ जगत के विचार में जो इतना
मग्न हो जाता है कि आत्मा का विचार ही नहीं कर पाता, उसका विचार चाहे जितना गंभीर और सूक्ष्म क्यों न हो, सार्थक नहीं है । विवेकवाद व्यक्ति के लिए तो श्रात्मा के स्वरूप का चिन्तन और संरक्षण करके निराकरण दशा को प्राप्त करने का प्रयत्न करना ही उचित है । यही धर्म है । इस सम्बन्ध की कथा धर्म कथा कहलाती है ।
अशुभ भाव से जब तक मन नहीं हटेगा तब तक शुभ कार्य में मन नहीं लगेगा । अशुभ फलों का कटुक फल बता कर तथा शुभ कर्मों का लाभ बतला कर धर्म के प्रति प्रीतिमान बनाया जाता
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जब तक बच्चे के अन्तःकरण में पढ़ाई के प्रति प्रीति नहीं उत्पन्न होती तब तक दण्ड आदि का भय उसे दिखलाया जाता है। किन्तु जब बालक स्वयं ग्रन्तः प्रेरणा से ही पढ़ाई में रुचि लेने लगता है और पढ़ाई में उसे ग्रानन्द का अनुभव होने लगता है तो उसे किसी प्रकार का भय दिखलाने की श्रावश्यकता नहीं होती। वह पढ़ाई के बिना रह नहीं सकता । सेठों को दुकानदारी में प्रीति होती है। दुकानदारी के फेर में पढ़ कर वे भोजन भी छोड़ देते हैं।