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श्रु तपंचमी
दशवकालिक सूत्र प्रधानतः श्रमण निम्रन्थ के प्राचार का प्रतिपादन ___ करता है किन्तु जैन धर्म या दर्शन में कहीं भी एकान्त को स्वीकार नहीं किया . गया है । यही कारण है कि आचार के प्रतिपादक शास्त्र में भी अत्यन्त प्रभाव पूर्ण शब्दों में ज्ञान का महत्व प्रदर्शित किया है। प्रारंभ में कहा है
पढमं नाणं तो दया, एवं चिटुइ सव्वसंजए। .. - सभी संयमवान् पुरुष पहले वस्तुस्वरूप को यथार्थ रूप में समझते हैं - और फिर तदनुसार आचरण करते हैं। यहां 'दया' शब्द समग्र प्राचार को
उपलक्षित करता है। ...... दशवैकालिक में अन्यत्र कहां गया है- अण्णाणी किं काही, किंवा नाही छेयपावगं ।
- अज्ञानी बेचारा कर ही क्या सकता है। उसे भले-बुरे का विवेक कैसे प्राप्त हो सकता है ?
- यह अत्यन्त विराट दिखलाई देने वाली जगत् वस्तुतः दो ही तत्वों =". का विस्तार है । इसके मूल में जीव और अजीव तत्त्व ही हैं । अतएव समीचीन :: रूप से जीव और अजीव को जान लेना सम्पूर्ण सृष्टि के स्वरूप को समझ... ... लेना है। मंगर यही ज्ञान बहुतों को नहीं होता। कुछ दार्शनिक इस भ्रम में ..... " रहे हैं कि जगत् में एक जीव तत्त्व ही है, उससे भिन्न किसी तत्त्व का सत्त्व
नहीं है। इससे एकदम विपरीत कतिपय लोगों की भ्रान्त धारणा है कि जीव