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जिसके जीवन में सत्य, सरलता और दया घुल-मिल गए हैं, जिसने समस्त पापमय व्यापारों का त्याग कर दिया है और जो तीव्र. तपश्चर्या करके आत्मा को निर्मल बनाने में संलग्न है, वही अतिथि कहलाने योग्य है।
अपने निमित्त खाने और पहनने आदि के लिए जो सामग्री जुटाई हो - उसमें से कुछ भाग अतिथि को अर्पित करना संविभाग कहलाता है । सहज रूप में अपने लिए बनाये या रक्खे हुए पदार्थों के अतिरिक्त त्यागियों के उद्देश्य से ही कोई वस्तु तैयार करना, खरीदना या रख छोड़ना उचित नहीं। . ... कई लोग यह सोचते हैं कि जैसा दगे वैसा पाएगे; किन्तु यह दृष्टि -: भी ठीक नहीं है । भुने चने देने से चने ही मिलेंगे और हलुवा देने से हलुप्रा
ही मिलेगा, यह धारणा भ्रमपूर्ण है । दान में देय वस्तु के कारण ही विशेषता ' नहीं आती। वाचक उमास्वाति तत्त्वार्थसूत्र में कहते हैं
विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषद्तविशेषः । दान के फन में जो विशेषता आती है, उसके चार कारण हैं:-..
. . (१) विधि (२) देय द्रव्य (३) दाता की भावना और (४) लेने वाला - पात्र । जहां यह चारों उत्कृष्ट होते हैं, वहां दान का फल भी उत्कृष्ट होता है। ... .. किन्तु इन चारों कारणों में भी दाता की भावना ही सर्वोपरि है। अगर दाता । - . निर्धन होने के कारण सरस एवं बहुमूल्य भोजन नहीं दे सकता, किन्तु उत्कृष्ट
भक्ति-भावना के साथ निष्काम भाव से देता है तो निस्सन्देह वह उत्तम फल का भागी होता है । पवित्र भाव से समय पर दी गई सामान्य वस्तु भी कल्पवृक्ष . . .
है। अगर यह मान लिया जाय कि चिकना देने वाला चिकना पाएगा और ... रूखा देने वाला रूखा ही पाएगा, तो फिर भावका का मूल्य ही क्या रहा ?
- चन्दनबाला तेले की पारणा करने को उद्यत थी। पारणा के लिए उसे उड़द के बाकले मिले थे। राजकुमारी होकर भी वह बड़ी विषम परिस्थितियों के चक्कर में पड़ गई थी । मूना सेठानी अत्यन्त ईर्षालु एवं कर्कशा स्वभाव की