________________
३०८]
सकता । भगवान् ने अन्न ग्रहण करने का निषेध भी नहीं किया है, अलबत्ता .. यह कहा है कि इस बात को सावधानी रखनी चाहिए कि जीवन खाने के लिए ही न बन जाए और खाने में आसक्ति न रंक्खी जाय ।
जब आहार ग्रहण करने की स्थिति साधक के समक्ष आती है तो वह खुराक में संविभाग करता है। इसे अतिथि संविभाग या आहार संविभाग कहते हैं।
पोषध व्रत का काल समाप्त होने के पश्चात् जब आहार ग्रहण करने को उद्यत होता है तब आराधक की यह अभिलाषा होती है कि महात्माओं को . कुछ दान करके खाऊं तो मेरा खाना भी श्रेयस्कर हो जाय । अवसर के अनुसार इस अभिलाषा को पूर्ण करना अतिथि संविभाग है।
पति, पुत्र, पुत्री, जामाता आदि के आने का काल निश्चित होता है । प्रायः ये पर्व आदि के समय हैं, किन्तु त्यागी महात्मानों के प्राने की कोई तिथि नियत नहीं होती, अतएव उन्हें अतिथि कहा गया है । जिसने संसार के समस्त पदार्थों की ममता तज दी है, जो सब प्रकार के प्रारम्भ और परिग्रह से विमुक्त . हो चुका है और संयममय जीवन यापन करता है, वह अतिथि कहलाता है। कहा भी है
हिरण्ये वा सुवर्णे वा, धने धान्ये तथैव च । अतिथि तं विजानीयाचस्य लोभो न विद्यते।।
सत्यार्जवदयायुक्तं, पापारम्भविवर्जितम् । उग्रतपस्समायुक्त-मतिथिं विद्धि तादृशम् ।।
अर्थात् हिरण्य, स्वर्ग, धन और धान्य प्रादि पदार्थों में जिसकी ममता नहीं है, जो जागतिक वस्तुओं के प्रलोभन से ऊपर उठ गया है, वह अतिथि है।
-