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थी । उसकी बदोलत चन्दनबाला पर गहरा संकट था । पाररणा के लिए प्राप्त बाकले उसके सामने थे। फिर भी वह प्रतीक्षा कर रही थी कि कोई सन्तमहात्मा इधर पधार जाएँ और कुछ भाग ग्रहण करलें तो मेरी तपस्या में चार चांद लग जाएं, मैं तिर जाऊं । उसका पुण्य प्रत्यन्त प्रबल था कि तीर्थनाथ भगवान् महावीर स्वयं ही पधार गए ।
हथकड़ियों और बेड़ियों से जकड़ी चन्दनबाला द्वार पर बैठी प्रतीक्षा कर रही थी । उसका एक पैर द्वार के बाहर और एक पैर भीतर था । संकटग्रस्त अवस्था में थी । फिर भी भगवान् को देख कर उसका रोम-रोम उल्लसित: हो उठा । चित्त प्रफुल्लित हो गया । चेहरे पर दीप्ति चमक उठी । परन्तु यह क्या हुआ ? भगवान् चन्दनबाला के निकट तक ग्राकर उल्टे पांव वापिस लोट पड़े । शारीरिक ताड़ना, तीन दिन की भूख, शिरोमुण्डन, तिरस्कार और जघन्य लांछना से भी जो हृदय द्रवित नहीं हुआ था और वज्र के समान कठोरता धारण किये था, वह भगभान् को भिक्षा लिये बिना वापिस लौटते देख धैर्य न धारण कर सका । चन्दना की आंखों से मोती बरसने लगे । भगवान् की प्रतिज्ञा पूर्ण हुई और उन्होंने पुनः लौट कर चन्दना के हाथों से बाकला ग्रहण किए । देवों ने सुवर्ण की वृष्टि की और 'अहो दानम्, ग्रहो दानम्' की ध्वनि से गगनमण्डल गूंज उठा ।
उड़द के छिलकों का दान और उसकी इतनी कद्र हुई ! देवताओं ने उस दान की प्रशंसा की । यह सब उदात्त भक्तिभाव का प्रभाव था । वास्तव में मूल्य वस्तु का नहीं, भक्ति भावना का है । अतएव यह प्रावश्यक नहीं कि सत्पात्र को मूल्यवान् वस्तु दी जाय, मगर आवश्यक यह है कि गहरी भक्ति और प्रीति के साथ निर्दोष वस्तु दी जाय । अलबत्ता विवेकवान् दाता इस बात का ध्यान अवश्य रक्खेगा कि देश और काल कैसा है ? मेरे दान से महात्मा को साता तो पहुँचेगी ? तात्पर्य यह है कि उत्कृष्ट भक्ति के साथ, विधिपूर्वक उत्कृष्ट पात्र को दिया गया दान उत्कृष्ट फलदायक होता है ।