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- वास्तविकता यह है कि बाह्य प्रवृत्ति मात्र से कुछ बनता-बिगड़ता नहीं । नेत्र देखते हैं, कान सुनते हैं, अन्य इन्द्रियां अपना-अपना कार्य करती हैं। इन्द्रियदमन का अर्थ कई लोग उनकी बाहरी प्रवृत्ति को रोक देना समझते हैं। प्रांखें फोड़ लेना चक्षुरिन्द्रिय का दमन है, ऐसी किसी-किसी की समझ है। किन्तु भगवान् महावीर इसे इन्द्रियदमन नहीं कहते। अपने-अपने विषय को ... ।
इन्द्रियां भले ग्रहण करती रहें मगर उस विषय ग्रहणे में राग द्वेष के विष का - 'श्रम्मिश्रण नहीं होना चाहिए। किसी वस्तु को देख लेना ही पापं नहीं है, किन्तु । - उस वस्तु को हम अपने मन से सुन्दर अथवा असुन्दर रूप देकर उसके प्रतिः . . रागभाव और द्वेषभाव धारण करते हैं, यह पाप है। .: ::. . .
। किन्तु यहां एक बात ध्यान में रखनी होगी। उक्त कथन का आशय यह ... नहीं समझना चाहिये कि इन्द्रियों को स्वच्छन्द छोड़ दिया जाय और यह मान
कर कि राग-द्वेष उत्पन्न नहीं होने दिया जायगा, उन्हें किसी भी विषय में . प्रवृत्त होने दिया जाय । राग-द्वेष की परिणति निमित्त पाकर उभर आती है। अंतएव जब तक मन पूर्ण रूप से संयतं न बन जाए, मन पर पूरा काबू न पा लिया जाय, तब तक साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह राग-द्वष आदि । विकारों को उत्पन्न करने वाले निमित्तों से भी बचे।
क्या हमारे मन में इतनी वीतरागता आ गई है कि उत्तम से. उत्तम .. भोजन करते हुए भी लेशमात्र प्रीति का भाव उत्पन्न न हो? क्या हम ऐसा... ... समभाव प्राप्त कर चुके हैं कि खराब से खराब भोजन पाकर भी अप्रीति का
अनुभव न करें ? क्या मनोहर और वीभत्स रूप को देखकर हमारा चित्त ... .. किसी भी प्रकार के विकार का अनुभव नहीं करता? इत्यादि प्रश्नों को अपनी ... ... आत्मा से पूछिये । यदि आपकी प्रात्मा सचाई के साथ उत्तर देती हैं कि अभी
ऐसी उदासीन भावना नहीं आई है तो आपको इन्द्रियों के विषयों के सेवन से : भी बचना चाहिए और विकार वर्धक निमित्तों से दूर रहना चाहिए। साधारण साधक में इस प्रकार का वीतराग भाव उदित नहीं हो पाता। इसी कारण :