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(२) आसन को भलीभांति देखे बिना बैठना-यह भी इस व्रत का अति:चार है । इसके सेवन से भी वही हानि होती है जो बिस्तर को न देखने से होती है।
(३) भूमि देखे बिना लघुशंका-दीर्घशंका करना-मल-मूत्र का त्याग करने से पहले भूमि का भलीभांति निरीक्षण कर लेना आवश्यक है। इस बात का .. ध्यान रखना चाहिए कि भूमि में रंध्र, छिद्र, दरार या बिल आदि न हों तथा
छोटे-मोटे जीव-जन्तु न हों। बहुत बार जमीन पोली होती है और कई जन्तु - सर्दी गर्मी या भय से बचने के लिए उसके भीतर आश्रय लेकर स्थित होते हैं। ...
उन्हें किसी प्रकार अपनी ओर से बाधा न पहुँचे, इस बात की सावधानी रखना
पोषधव्रती का कर्तव्य है। ...... ....... ... : - (४) पोषधव्रत का सम्यक् प्रकार से विधिपूर्वक पालन न करना--यह भी व्रत की मर्यादा को भंग करना है, अतएव यह भी अतिचारों में परिगणित है।
(५) निद्रा प्रादि प्रमाद में समय नष्ट करना--यह भी अतिचार है। इस व्रत के अतिचारों पर विचार करने से स्पष्ट हुए बिना नहीं रहता कि
श्रावक की चर्या किस प्रकार की होनी चाहिए। जीवन के क्या छोटे और - क्या बड़े, सभी व्यवहारों में उसे सावधान रहना चाहिए और ऐसा अभ्यास
करना चाहिए कि उसके द्वारा किसी भी प्राणी को निरर्थक पीड़ा नपचे । हुँ
जो छोटे-छोटे जीव-जन्तुओं की रक्षा करने की सावधानी रक्खेगा और उन्हें ... भी पीड़ा पहुँचाने से बचेगा, वह अधिक विकसित बड़े जीवों की हिंसा कदापि .. . नहीं करेगा। कतिपय लोग जिन्होंने जैन धर्म में प्रतिपादित. आचार पद्धति का :. .. और विशेषतः अहिंसा का अध्ययन नहीं किया है, ऐसा समझते हैं कि जैनधर्म
में कीड़ी-मकोड़े की दया पर अधिक जोर दिया गया है, किन्तु जो आनन्द - श्रावक के द्वारा ग्रहीत व्रतों का विवरण पढ़ेंगे और उसे समझने का प्रयत्न . करेंगे, उन्हें स्पष्ट विदित होगा कि इस आरोप में लेश. मात्र भी सचाई नहीं है । जैनाचार के प्रणेताओं ने अपनी दीर्घ और सूक्ष्म दृष्टि से बहुत सुन्दर