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२६८] का त्याग करना सच्चा उपवास है। कपायों और विषयों का त्याग न करके सिर्फ बाहार का त्याग करना उपवास नहीं कहलाता-वह तो लंघन मात्र है। .... संक्षेप में कहा जा सकता है कि पोषध का अर्थ है--यात्मिक गुणों का . पोषण करने वाली किया। जिस-जिस क्रिया से आत्मा अपने स्वाभाविक गुणों का विकास करने में समर्थ बने, विभाव परिणति से दूर हो और आत्म-स्वरूप के सन्निकट आए, वही पोषध है। . . .
पोषधवत अंगीकार करते समय निम्नोक्त चार बातों का त्याग आवश्यक है-- .. ............. ......... : (१) आहार का त्याग। . . . .. .
(२) शरीर के सत्कार या संस्कार का त्याग, जैसे केशों का प्रसाधन, स्नान, चटकीले-भड़कीले वस्त्रों का पहिनना, अन्य प्रकार से शरीर को सुशोभन बनाना। ... . .. .. . . . . . . . . . . :::: (३) अब्रह्म का त्याग ।
(४) पापमय व्यापार का त्याग।.
मन को सर्वथा निर्यापार बना लेना संभव नहीं है । उसका कुछ न कुछ व्यापार होता ही रहता है । तन का व्यापार भी चलेगा और वचन के व्यापार का विसर्जन कर देना भी इस व्रत के पालन के लिए अनिवार्य नहीं है। ध्यान यह रखना चाहिए कि ये सब व्यापार व्रत के उद्देश्य में बाधक न बन जाएं। विष भी शोधन कर लेने पर औषध बन जाता है, इसी प्रकार मन बचन और काम के व्यापार में आत्मिक गुणों का घात करने की जो शक्ति है उसे नष्ट कर दिया जाय तो वह भी अमृत बन सकता है। तेरहवें गुणस्थान में पहुंचे हुए सर्वज्ञ सर्वदर्शी अरिहन्तः भगवान् के भी तीनों योग विद्यमान रहते हैं। किन्तु वे उनकी परमात्म दशा में बाधक नहीं होते। इसी प्रकार सामान्य साधक का यौगिक व्यापार यदि चालू रहे किन्तु वह पापमय न हो तो व्रत की साधना में बाधक नहीं होता।
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