________________
[ २६१
घन
घनाघनक
योग : सर्वविपल्ली -विताने परशु : शित: । अमूलमन्त्रतन्त्रञ्च, कार्मण निव सिश्रियः ॥ भूयासोऽपि, पाप्मानः, प्रलयं यान्ति योगतः । चण्डवाताद् धनघटना, घनाघनघटा इव ।। . कफविमलामर्श-सर्वोषधमहईयः ।
संभिन्नश्रोतोलब्धिश्च, . यौगं ताण्डवडम्बरम् ॥ :: ... __अर्थात्-योग समस्त विपत्तिरूरी लताओं के वितान को छेदन करने -, वाला तीक्ष्ण कुल्हाड़ा है और मुक्ति रूपी लक्ष्मी को वशीभूत करने के लिए .. . बिना मेंत्र-तंत्र. की कार्मण हैं। योग के प्रभाव से सम्पूर्ण पापों का विनाश हो जाता है जैसे तेज अांधी से मेघों की संघन-घटाएं तितर-बितर हो जाती हैं। योग के अद्भुत प्रभाव से किसी-किसी योगी को ऐसी ऋद्धि प्राप्त हो जाती हैं कि उसका कफ सब रोगों के लिए औषध का काम करता है, किसी के मल में और मूत्र में रोगों को नष्ट करने की शक्ति. उत्पन्न हो जाती है। किसी के स्पर्श मात्र से ही रोग दूर हो जाते हैं। किसी के मल, मूत्र प्रादि सभी व्याधि विनाशक हो जाते हैं । योग के प्रभाव से संभिन्नश्रोतोलब्धि भी प्राप्त होती है । जिसके प्राप्त होने पर किसी भी एक इन्द्रिय से पांचों इन्द्रियों का काम लिया.
जा सकता है । जीभ से सू ची जा सकती है, आँख से चखा जा सकता है, ... कान से देखा जाता है, इत्यादि। इनके अतिरिक्त अन्य समस्त लैंब्धियां भी
योग के अभ्यास द्वारा प्राप्त की जा सकती हैं। ... ... ..."
.
.
' .
:
:
-.
.
- नाना प्रकार की प्राप्त होने वाली, लब्धियां योग का प्रधान फल नहीं है । अध्यात्मनिष्ठ योगी इन्हें प्राप्त करने के लिए. योग की साधना नहीं .... करता । ये आनुषंगिक फल हैं । जैसे कृषक धान्य प्राप्त करने के लिए कृषिकार्य कारता है किन्तु धान्य के साथ उसे भूसा (खखिला) भी मिलता है, उसी .. प्रकार योगी मुक्ति के लिए सांधना करता है परन्तु उक्त लब्धियों भी अनायास ही उसे प्राप्त हो जाती हैं।
--
yre.
..
]