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२७८] __मनोवृत्ति जब तक वीतरागतामयी नहीं हो जाती तब तक इस जीवन में भी निराकुलता और शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती। जितने-जितने अंशों में : वीतरागता का विकास होता जाता है, उतने ही उतने अंशों में शान्ति सुलभ हो जाती है । अतएव अगर हम वीतराग परिणति को अपना सकें तो श्रेयस्कर. ही है । न अपना सकें तो भी कम से कम वीतरागता की ओर बढ़ने वालों को देख कर प्रमोद का अनुभव करें। वीतराग के प्रति प्रमोद का अनुभव करना भी वीतरागता के प्रति बढ़ने का पहला कदम है। .. ....
भगवान् के चरणों में अन्तिम समय तक रह कर और उनसे वीतरागभाव की प्रेरणा प्राप्त करके अनेक राजाओं ने अपने जीवन को कृतार्थ समझा।
साधना की प्राथमिक भूमिकाओं में देव और गुरु के प्रति अनन्य अनुराग उपयोगी होता है । सुदेव और सुगुरु के प्रति दृढ़ अनुराग होने से साधक कुदेव और कुगुरु की उपासना से बच कर मिथ्यात्व से भी बचता है। किन्तु सिद्धान्त बतलाता है कि यह स्थिति भी उच्च भूमिका पर चढ़ने में एक प्रकार की रुकावट है । मैं आराधक हूँ और मुझसे भिन्न कोई आराध्य है, इस प्रकार का विकल्प जब तक बना रहता है, तब तक आराधना पूर्ण नहीं होती। चित्त में आराध्य, पाराधक और आराधना का कोई विकल्प न रह जाना-तीनों का एक रूप हो जाना अर्थात् भेद प्रतीति का विलीन हो जाना ही सच्ची आराधना है । तात्पर्य यह है कि जब आत्मा अपने ही स्वरूप में रमण करता है और . बाह्य जगत् के साथ उसका कोई लगाव नहीं रह जाता है, बही ध्याता, वही
ध्येय और वही ध्यान के रूप में परिणत हो जाता है-निर्विकल्प समाधि की . दशा प्राप्त कर लेता है तभी उसकी अनन्त शक्तियाँ जागृत होती हैं। : ...
..... प्राथमिक स्थिति में भी साधक को गुरु के शरीर के सहारे न रह कर, - गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञान के सहारे रहना चाहिए । गौतम स्वामी ने प्रभु की सेवा .... में ३० वर्ष व्यतीत कर दिए । वे कभी उनसे पृथक् नहीं रहे। उन्होंने सच्चे