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________________ २७६. अन्तेवासी (निकट ही निवास करने वाले) का धर्म निभाया। परन्तु उन्हें पूर्ण .. ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई। उनके हृदय में अपने आराध्य नगवान् के प्रति जो प्रशस्त राग विद्यमान था, उसने आवरणों का क्षय नहीं होने दिया। महावीर स्वामी ने गौतम से कहा-मेरे प्रति तुम्हारा जो अनुराग है, . उसे बाहर निकाल दो तो केवलज्ञान की प्राप्ति होगी । जब तक साधक अपने से भिन्न किसी दूसरे पर अवलम्बित है तब तक वह बहि ष्टि बना रहता हैवह पूर्णरूपेण अन्तर्मुख नहीं हो पाता। अन्तर्मुखता के बिना अात्मनिष्ठता नहीं आती और प्रात्मनिष्ठता के अभाव में आत्मा के सहज-स्वाभाविक स्वरूप का आविर्भाव नहीं होता। भगवान् ने कहा ..पुरिसा तुममेव तुमं मित्तं, किं वहिया मित्तमिच्छसि-याचारांग । अर्थात्-हे आत्मन् ! अपना सहायक तू आप हो है, अपने से भिन्न - सहायक की क्यों अभिलाषा करता है। - कितना महान् श्रादर्श हैं ! प्रभु की कैसी निस्पृहता है ! दूसरे धर्मों के देव कहते हैं-तू मेरी शरण में आ, मैं तुझे समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा और . पाप करने पर भी उसके फल से बचा लूगा । कोई कहता है-मेरी उपासना जो करेगा उसे मैं वहिश्त में भेज दूंगा-स्वर्ग का पट्टा लिख दूंगा। मगर वीतराग की वाणी निराली है । उन्हें अपने भक्तों की टोली नहीं जमा करनी . . है, अपने उपासकों को किसी प्रकार का प्रलोभन नहीं देना है। वे भव्य जीवों को आत्म-कल्याण की कुजी पकड़ा देना चाहते हैं, इसीलिए कहते हैं-गौतम ! मेरे प्रति तेरा जो अनुराग है, उसे त्याग दे। उसे त्यागे बिना पूर्ण वीतरागता .. का भाव जागृत नहीं होगा। इस प्रकार की निस्पृहता उसी में हो सकती है। जिसने पूर्ण वीतरागता प्राप्त करली हो और जिसमें पूर्ण ज्ञान की ज्योति : प्रकट हो गई हो । अतएव भगवान् का कथन ही उनकी सर्वज्ञता, पूर्ण कामना । और महत्ती महत्ता को सूचित करता है । ....... ..... . . .
SR No.010710
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 03 and 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages443
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size23 MB
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