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[२७५ होती तो इस जगत् की क्या स्थिति होती? मानव दानव बन गया होता, घरा ने रौरव का रूप धारण कर लिया होता ! भगवान ने अपनी साधनापूत दिव्यध्वनि के द्वारा मनुष्य की मूछित चेतना को संज्ञा प्रदान की, दानवी वृत्तियों .. का शमन करने के लिए देवी भावनाएँ जागृत की और मनुष्य में फैले हुए नाना प्रकार के भ्रम के सघन कोहरे को छिन्न-भिन्न करके विमल आलोक की
प्रकाशपूर्ण किरणें विकीर्ण की। ....... प्रश्न उठ सकता है कि संसार का अपार उपकार करने वाले भगवान् ..
के निर्वाण को 'कल्याणक' क्यों कहा गया है ? निर्वाण दिवस में आनन्द क्यों मनाया जाता है ? इसका उत्तर यह है कि लोकोत्तर पुरुष दूसरे पामर प्राणियों जैसे नहीं होते । वे आते समय प्रेरणा लेकर आते हैं और जाते समय भी प्रेरणा देकर जाते हैं। अतएव महापुरुषों का जन्म भी कल्याणकारी होता है और निर्वाण भी।
आस्तिक आत्मा को अजर, अमर और अविनाशी मानते हैं। आत्मा एक शाश्वत तत्त्व है । न उसका उत्पाद होता है न विनाश । सकर्म अवस्था में - वह एक भव को त्याग कर, दूसरे भव में चला जाता है, जैसे कोई व्यक्ति एक
नगर को त्याग कर दूसरे नगर में बस जाता है ऐसी स्थिति में मृत्यु का अर्थ सिर्फ पर्याय और शरीर का परिवर्तन हो जाना मात्र है, आत्मा का अस्तित्व समाप्त
होना नहीं है। इसमें भी जो महापुरुष साधना के क्षेत्र में अग्रसर होते हैं, उसमें - सफलता प्राप्त करते हैं और जीवन पर्यन्त स्व-पर के अभ्युदय में निरत रह .. कर शरीर का परित्याग करते हैं, वीतरागभाव का चरम विकास हो जाने के ... ... कारण जीवन और मरण दोनों जिन्हें एक समान प्रतीत होने लगते हैं, उनके लिए मरण एक साधारण-सी घटना है । यही नहीं, वे मृत्यु को साधना के फल. . की प्राप्ति का सहायक समझते हैं, क्योंकि शरीर का त्याग किये बिना साधना
का सम्पूर्ण फल प्राप्त नहीं होता। यही कारण है कि मृत्यु को महान् उत्सव :- का रूप दिया गया है । फिर जो शरीर त्याग कर सिद्धि प्राप्त करते हैं, सदा
के लिए जन्म-मरण के चक्र से छूट जाते हैं और अव्यावाध सुख के भागी बनते.... हैं, उनका शरीरोत्सर्ग तो किसी भी प्रकार शोचनीय नहीं होता। .