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परमात्मा का जो स्वरूप है, वही मेरा स्वरूप है और जो मेरा स्वरूप है वही परमात्मा का । अतएव किसी अन्य की प्राराधना न करते हुए प्रात्मा की ही आराधना करना उचित है।
___ इस प्रकार मूलतः आत्मा-परमात्मा में समानता होने पर भी श्राज जो अन्तर दृष्टिगोचर हो रहा है, उसका कारण आवरण का होना और न होना है । जो आत्मा सम्यक् श्रद्धा के साथ, विवेक को आगे करके, साधना के क्षेत्र में : अग्रसर होती है, उसकी शक्तियों का-गुणों का पूर्ण विकास हो जाता है और :
आत्मिक शक्तियों के पूर्ण विकास की अवस्था ही परमात्मदशा कहलाती है, अनादिकालीन कर्मकृत प्रावरण जब तक विद्यमान हैं और वे श्रात्मा के .. स्वाभाविक गुणों को आवृत किये हुए हैं तब तक आत्मा श्रात्मा है । ज्ञान और क्रिया के समन्वय से जब आवरणों को छिन्न-भिन्न कर दिया जाता है और ...
निर्मल, सहज-स्वाभाविक स्वरूप प्रकट हो जाता है तो वही श्रात्मा परम- . 'आत्मा-परमात्मा बन जाता है। जो आत्मा परमात्मा के पद पर पहुंच गई है, .
उसका स्मरण करने से हमें भी उस पद को प्राप्त करने की प्रेरणा मिलती है और हम उस पथ पर चलने को अग्रसर होते हैं जिस पर चलने से परमात्मदशा प्राप्त होती है। ......अतएव आज हम उन परमपावन, परमपिता, परम मंगलधाम महावीर... स्वामी का जो स्मरण करते हैं, उसमें कृतज्ञता की भावना के साथ-साथ स्वात्मस्वरूप का स्मरण भी सम्मिलित है। ... ...... ...
महाप्रभु महावीर के प्रति हम कितने कृतज्ञ हैं । संसार के दुःख-दावानल से झुलसते हुए, अनन्त सन्ताप से सन्तप्त; मोह-ममता के निविड अन्धकार में भटकते और ठोकरें खाते हुए; जन्म जरा-मरण की व्याधियों से पीड़ित एवं अपने स्वरूप से भी अनभिज्ञ जगत् के जीवों को जिन्होंने मुक्ति का मार्ग - प्रदर्शित किया, सिद्धि का समीचीन सन्देश दिया, ज्ञान की अनिर्वचनीय ज्योति... __.. जगाई । उनके प्रति श्रद्धा निवेदन करना हमारा सर्वोत्तम कर्त्तव्य है। भगवान्
ने अहिंसा का अमृतं न पिलाया होता और सत्य की सुधा-धारा प्रवाहित न की :