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. [२६६ के सभी जीव अपने संसारताप को शान्त कर लेते हैं ? नहीं, ऐसा नहीं होता। बहुत-से जीव सूखे भी रह जाते हैं । इसमें कोई आश्चर्य की बात भी नहीं है । बीज कितना ही अच्छा क्यों न हो, ऊपर भूमि में पड़कर अंकुरित नहीं होता। यह भूमि का ही दोष समझना चाहिए, बीज का नहीं। प्रसिद्ध दार्शनिक प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर कहते हैं....
सद्धर्मबीजवयनानंद्यकौशलस्य, यल्लोकबान्धव ! तवापि खिलान्यभूवन् । तन्नाद्भुतं खगकुलेष्विह तामसेसु, सूर्याशवो मधुकरो चरणावदाताः ॥
वे कहते हैं-प्रभु तो समस्त प्राणियों के बन्धु हैं-सब के समान से सहायक हैं। किसी के प्रति उनका पक्षपात नहीं है। इसके अतिरिक्त धर्म रूपी बीज को बोने में उनका कौशल भी अद्वितीय है। फिर भी धर्म-दीज के लिए कोई-कोई भूमि ऊपर सावित होती है, जहां वह बीज अंकुरित नहीं होता। मगर यह कोई अद्भुत बात नहीं है। सूर्य अपनी समस्त किरणों से उदित होता है और लोक में प्रकाश की उज्ज्वल किरणें विकीर्ण करता है, फिर भी कुछ निशाचर प्राणी ऐसे होते हैं जिनके आगे उस सयय भी अधेरा छाया रहता है । ऐसा है तो इसमें सूर्य का क्या अपराध है ?
भव्य जीव भगवान् की वाणी के अमृत का पान करके अपने को कृतार्थ करते हैं। जो सम्यग्दृष्टि हैं या जिनका मिथ्यात्व अत्यन्त तीव्र नहीं है, वे उस उपदेश से लाभ उठाते हैं। धन्य हैं वे भद्र और पुण्यशाली जीव जिन्हें तीर्थकर देव के समवसरण में प्रवेश करके उनके मुखारविन्द से देशना श्रवण करने का सुयोग मिलता है। ..
इन्द्रभूति गौतम, नौ मल्ली और नौलिच्छवी राजा आदि ऐसे ही भाग्यवानों की गणना में थे। उन्होंने प्रभु के पावन प्रवचन-पीयूष का आकंठ पान किया । भगवान् के उपदेश की अखण्ड धारा प्रवाहित हो रही थी। पुट्ठ