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[ २६१ भागी होना पड़ता है। सामायिक अंगीकार करके प्रमाद में समय व्यतीत कर देना, नियम के निर्वाह के लिए जल्दी-जल्दी सामायिक करके समाप्त कर देना, चित्र में विषय भाव को स्थान देना आदि अनौचित्य इस व्रत के अन्तर्गत हैं।
सामायिक साधना की अन्तिम दशा समाधि है, जैसे योगशास्त्र के अनुसार योग की अन्तिम स्थिति समाधि है । समाधि की स्थिति में पहुंच जाने पर साधक शोक और चिन्ता के कारण उपस्थित होने पर भी प्रानन्द में मग्न रहता है । शोक उसके अन्तःकरण को म्लान नहीं कर सकता और चिन्ता उसके चित्त में चंचलता उत्पन्न नहीं कर सकती। वह प्रात्मानन्द में मस्त हो जाता है । इसी अद्भुत आनन्द की प्राप्ति के लिए चक्रवर्तियों ने और बड़े-बड़े सम्राटों ने भी अपने साम्राज्य को तिनके की तरह त्याग कर सामायिक व्रत को अंगीकार किया था। वस्तुतः सामायिक में निराला ही प्रानन्द है । उस अानन्द के सामने विषयजन्य सुख किसी गिनती में नहीं है । मगर शर्त यही है कि सामायिक सच्ची सामायिक हो, भावसामायिक हो और उसके अनुष्ठान में स्व-पर वंचना को स्थान न हो।
आत्मा में जब तक शुद्ध दृष्टि नहीं उत्पन्न होती, शुद्ध प्रात्मकल्याण की कामना नहीं जागती और मन लौलिक एषणाओं से ऊपर नहीं उठ जाता, तब तक शुद्ध सामायिक की प्राप्ति नहीं होती । अतएव लौकिक कामना से प्रेरित होकर सामायिक का अनुष्ठान न किया जाय वरन् कर्मबन्ध से बचने के लिए-संवर की प्राप्ति के लिए सामायिक का पाराधन करना चाहिए । कामराग और लोभ के झोंकों से साधना का दीप : मन्द हो जाता है । और कभी-कभी बुझ भी जाता है । अत एव प्रागमोक्त विधि से उत्कृष्ट प्रम के साथ सामायिक करना चाहिये.जो ऐसा करेगा. उसका वर्तमान जीवत, अलौकिक आनन्द से परिपूर्ण हो जाएगा और परलोक परम मंगलमय बन जाएगा।