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बुढ़िया के लिए चुप रहना अब असम्भव हो गया, परन्तु सामायिक के भंग होने का भय भी उसके चित्त में समाया हुआ था। सामायिक भंग करने से न मालूम क्या अर्थ या अनिष्ट हो जाय, इस भय से वह उद्विग्न हो रही थी ।
मनुष्य दूसरों को तो धोखा देता ही है, अपने ग्रापको भी धोखा देने से नहीं चूकता। बुढ़िया ने इस अवसर पर श्रात्मवंचना का ही अवलम्बन लिया-1 वह शान्तिनाथ भगवान् की प्रार्थना करने के बहाने कहने लगी- बेटा, जरा शान्तिनाथ की प्रार्थना सुन ले में सामायिक में हूं । प्रार्थना यों है
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"पाड़ो दाल चरे, कुची घोड़ा परे,
पंसेरी घही तले, मोही तारों जी,
श्री शान्तिनाथ भगवान्, मोही पार उतारो जी ।"
लड़के ने यह प्रार्थना सुनी और उसके मर्म को भी समझ लिया । उसने भैंसे को भगा दिया, कु ची प्राप्त कर ली और पंसेरी लेकर चला गया ।
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इस प्रकार सामायिक करने का स्वांग करने से, दंभ करने से और आत्मप्रवंचना करने से अनन्त काल में भी कार्य सिद्धि होने वाली नहीं है ! धर्म उसी के मन में रहता है जो निर्मल हो । माया और दंभ से परिपूर्ण हृदय में धर्म का प्रवेश नहीं हो सकता । बुढ़िया की जैसी चेष्टा करने से मन का, वचनका शौर काय का भी दुष्प्रणिधान होता है और इससे सामायिक का प्रदर्शन भले हो जाय, वास्तविक सामायिक के फल की प्राप्ति का तो प्रश्न ही नहीं उठता।
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( ४ ) सामाइअस्स सइ प्रकरणया - सामायिक काल में सामायिक की स्मृति न रहना भी सामायिक का दोष है ।
(५) सामाइअस्स प्रणवद्वियस्स करणया-व्यवस्थित रूप से अर्थात् आगमोक्त पद्धति से सामायिक व्रत का अनुष्ठान न करने से इस दोष का