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प्रोनी, धोती श्रादि देखकर आवश्यकता न होने पर भी खरीद लेना या ग्रन्यः पदार्थों का बिना प्रयोजन संग्रह करना महावीर स्वामी ने पाप कहा है । शीतकाल में गरम कपड़ े चाहिए और ग्रीष्मकाल में पतले, यह तो ठीक है, मगर कई कोई पोशाकें गरम कपड़ों की होने पर भी कहीं कोई नयी डिजाइन दिखाई दी और तबियत मचल गई । उसे खरीद लिया । इस प्रकार गरम कपड़ों से पेटियां भरलीं । मलमल यादि के कपड़ों की पेटियां अलग भरी हुई हैं। यह सब अनावश्यक संग्रह है ।
मनुष्य के दो ही पैर होते हैं और उनकी सुरक्षा के लिए एक जोड़ा जूता पर्याप्त है। मगर सेठ-सहाब और बाबू सहाब प्रतिदिन वही जूता पहनें, प्रातः काल पहना हुआ जूता सांयकाल पहनें तो बड़प्पन कैसे सुरक्षित रहेगा ? अतएव पैरों की सुरक्षा के लिए भले एक ही जोड़ा जूता चाहिए मगर बड़प्पन की सुरक्षा के लिए कई जोड़ियां चाहिए !
श्राज लोगों की ऐसी दृष्टि बन गई है। कंपड़ा और जूता उपयोगिता के क्षेत्र से निकल कर शृंगार और बड़प्पन के साधन बन गए हैं। इस दृष्टि विपर्यासी का ही परिणाम है कि लोग बिना श्रावश्यकता के भोगोपभोग की वस्तुओं का संग्रह करते हैं और दूसरों के समक्ष अपना बड़प्पन दिखलाते हैं । इससे गृहस्थों का जीवन सरल - स्वाभाविक न रहकर एकदम कृत्रिम और ग्राइन म्बर पूर्ण हो गया है । जहां देखो वहीं दिखावट है । शान-शौकत के लिए लोग आडम्बर करते हैं । प्रत्येक व्यक्ति अपने आपमें जो है, उससे अन्यथा ही अपने को प्रदर्शित करना चाहता है । अमीर अपनी अमीरी का ठसका दिख लाता है। गरीब उसकी नकल करते हैं और अपने सामर्थ्य से अधिक व्यय करके सिर पर ऋण का भार बढ़ाते हैं । इन अवास्तविक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अनेक प्रकार के अनैतिक उपायों का अवलम्बन करना पड़ता है । इस कारण व्यक्ति, व्यक्ति का जीवन दूषित हो गया है और जब व्यक्तियों का जीवन दूषित होता है तो सामाजिक जीवन निर्दोष कैसे हो सकता है ?
कपड़ों और जूतों की फसल आने का कोई नियत समय नहीं है। वे