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तरूण घर में ही बैठा रहा । बुढ़िया तबतक अपनी बहू के साथ पानी लेकर आई। दूसरी कौन है, यह पूछने पर बुढ़िया ने बतलाया - 'यह बहू है ।" तरूण ने कहा--' वह अच्छी है और चुनरी भी अच्छी है, मगर तुम्हारा पुत्र कहां है ? बुढ़िया बोली- 'शाम को घर आता है ।'
तरूण ने फिर मूर्खता का परिचय देते हुए कहा यदि पुत्र की गमी का समाचार आ जाय तो ?
यह मंगल वाणी सुनकर बुढ़िया के क्रोध की सीमा न रहीं । वह पानी . का घड़ा उसके ऊपर पटकने को तैयार हो गई किन्तु अभ्यागत समझ कर रुक गई । कपड़े में घुघरी देकर उसे घर से भगा दिया ।
रास्ते में घुघरी का पानी टपकते देख किसी ने पूछा- यह क्या कर रहा है ?
उसने उत्तर में कहा - जिभ्या का रस भरे, बोल्या विना नहीं सरे । '
इस दृष्टान्त से हमें सीख लेनी चाहिए कि- वाणी मित्र बनाने वाली होनी चाहिए, मित्र को शत्रु बनाने वाली नहीं ।
ऊपरी दृष्टि से ऐसा प्रतीत होगा कि ऐसा बोलने में झूठ का पाप नहीं "लगता मगर गहरा विचार करने से पता चलेगा कि बिना विचारे बोली गई वाणी प्रसुहावनी तथा वेसुरी लगती है । विनयचंदजी ने कहा
'बिना विचारे बोले बोल ते नर जानो फूटा ढोल ।'
जो मनुष्यं बिना बिचारे बोलता है उसका बोलना फूटे ढोल की श्रावाज के समान है। उसकी कोई कीमत नहीं । अच्छी वारणी वह है जो प्र ेममय मधुर और प्रेरणाप्रद होती है ।
वचनों के द्वारा ही मनुष्य के प्रान्तरिक रूप का साक्षात्कार होता है । मनुष्य जब तक बोलता नहीं तब तक उसके गुण-दोष प्रकट नहीं होते, मगर