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२३०] पर भी उनका मनोरथ सफल नहीं हो पाता। जीव अनादि काल से संसार में विविध प्रकार की प्राधि-व्याधि और उपाधियों का शिकार हो रहा है। वह इनसे बचने के लिए जो उपाय करता है, विवेक के अभाव में वे उलटे दुःखप्रद सिद्ध होते हैं । वह बाह्य पदार्थों के संग्रह में सुख देखता हैं और उनकी ही प्राप्ति में समस्त पुरुषार्थ लगा देता है। किन्तु स्मरण रखना चाहिए कि पर पदार्थों का संयोग सुख का नहीं, दुःख का ही कारण होता है । अतएव बाह्य पदार्थों की ओर से जितनी जितनी निवृत्ति साधी जाएगी, उतनी ही उतनी शान्ति एवं निराकुलता प्राप्त हो सकेगी।
. गृहस्थ आनन्द ने प्रभु के चरणों में बैठकर हेय और उपादेय की वास्तविक जानकारी प्राप्त की। यदि किसी साधारण छद्मस्थ से उन्हें जानता तो उसमें कमी रह सकती थी। भ्रम या विपर्यास भी हो सकता था। किन्तु भगवान् महावीर से हेय-उपादेय का विवेक प्राप्त करने में कमी या विपर्यास होने की गुंजाइश नहीं थी। - विक्षेप के सभी कारण छोड़ने योग्य होते हैं। अच्छा कपड़ा पहनने पर भी उस में मल लग जाता है । समझदार व्यक्ति मल को उपादेय नहीं मानता, अतएव उसे हटा देता है । इसी प्रकार व्रत मानों स्वच्छ चादर है। साधक यही प्रयत्न करता है कि व्रत रूपी चादर में मल न लगने पाए। फिर भी विवशता, चंचलता या प्रमाद के कारण मल (अतिचार ) लग जाय तो उसे साफ कर लेना चाहिए अर्थात् अालोचना आदि कर के अतिचार का शोधन कर लेना चाहिए।
इसके लिये व्रत के अतिचारों को जानना आवश्यक है। जो मल के स्वरूप को ही नहीं समझेगा वह उसे कैसे साफ करेगा ? अनर्थदण्डविरमण व्रत के अतिचारों में से पहले अतिचार का स्वरूप समझाया जा चुका है। आगे के अतिचारों पर प्रकाश डालना है । उनमें से दूसरा अतिचार कौत्कुच्य है। -
(२) कौत्कुंच्य-कुछ व्यक्तियों में विदूषकपन की वृत्ति देखी जाती है। वे शरीर के अंगों से ऐसी चेष्टा करते हैं जिससे दूसरे को हंसी आ जाय ।