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वाणी पढ़ने और सुनने को मिल रही है, इसका श्रेय अंतीत के उन महर्षियों . को ही है जिन्होंने अनेक प्रतिकूल परिस्थितियों में, अनेक प्रकार के संकटों का सामना किया और अंत की परम्परा को बनाए रखा। हमें उनके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए।
उस काल की तुलना में आज श्रत के पठन-पाठन में बहुत सहूलियत हो गई है। ऐसी स्थिति में हमें चाहिए, कि वीतराग भगवान की वाणी का गहराई के साथ अध्ययन-मनन करें और उसके पठन-पाठन में योग्यता के अनुसार अपना योग प्रदान करें। स्वाध्याय के द्वारा श्रुत का संरक्षण व प्रसारण करना हम सबैका कर्तव्यं हैं। ऐसा करने से इस लोक और परलोक में परम कल्याण होगा।
___ कल कहा गया था कि साधना के मार्ग पर चलने वाला सावधान साधक दो बातें सदा ध्यान में रखे-उपादेय क्या है और (२) हेय क्या है ? इन दोनों बातों का वह ध्यान ही नहीं रखता बल्कि उपादेय को अपने जीवन में यथाशक्ति अपनाता और हेय की परित्याग करता है। अंगर ग्रहण करने योग्य को ग्रहण न किया जाय और छोड़ने योग्य को छोड़ा न जाय तो उन्हें जानने से क्या लाभ हैं ? रोग से मुक्त होने के लिए औषध को और अपथ्य को जान लेना ही पर्याप्त नहीं हैं वरन् औषध का सेवन करना और अपथ्य को त्यागना भी आवश्यक है । प्रत्येक सिद्धि को प्राप्त करने के लिए, चाहे वह लौकिक हो अथवा लोकोत्तर, ज्ञान के साथ क्रिया की भी अनिवार्य आवश्यकता होती है। क्रियाहीन ज्ञान और ज्ञान हीन क्रिया से कभी कोई सिद्धि प्राप्त नहीं की जा सकती।
. किन्तु ग्राह्य क्या है और त्याज्य क्या है, इसका निर्णय अत्यन्त सावधानी के साथ करना चाहिए। बहुत बार लोग धोखा खाते हैं बल्कि सत्य तो यह है कि संसारी जन प्रायः भ्रम में पड़े हुए हैं। वे हेय को उपादेय और उपादेय को हेय समझ कर प्रवृत्ति कर रहे हैं और इसी कारण सुख को प्राप्त करने और दुःखों से छुटकारा पाने की तीन अभिलापा और घोर प्रयत्न करने